विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनीकुछ वाद्य ऐसे होते हैं कि डण्डा मारने पर बजते हैं, जैसे नगाड़ा, तबला, हाथ से पीटो, मृदंग- हाथ से पीटो, पीटने पर बजते हैं। काँस को काँसे से आपस में टकराओ तो झाँझ बजती है। सितार को किन-किन-किन करो तब बजता है। सारंगी को रगड़ो तब बजती है। ये तो महाराज। पीटपीटकर बजने वाले सब बाजे हैं। मगर बाँसुरी सांस से बजती है और अपने प्राणों से बजायी जाती है। वंशी तो वह वाद्य है जिसमें श्रीकृष्ण अपना प्राण उड़ेलकर दूसरों के कान में डाल देते हैं क्या अर्थ हुआ? कि हमारी प्रेयसी। अब ये प्राण चाहते कि तुम्हारे शरीर में रहें। ये प्राण तुम्हारे शरीर में बसना चाहते हैं। बाँसुरी के द्वारा निकल करके वे करुणारुण लोचन, करुणावरुणालय भगवान् अपने भक्तों के प्रेम के वशीभूत हो करके अपने प्राण को अपने भक्तों के हृदय में भर रहे हैं। श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज ने एक स्थान पर लिखा- अमृत तीन प्रकार का होता है। एक तो प्राणीभोग्य अमृत होता है, जैसे-जौ में, गेहूँ में, अंगूर में, घास में, फल में, फूल में, जो अमृत होता है, वह चंद्रमा से बरसकर आता है; चंद्रामृत यह प्राणी भोग्य अमृत है। एक-दूसरा अमृत होता है- देव-भोग्य। वह समुद्र-मन्थन से निकला है, स्वर्ग में रहता है। एक तीसरा अमृत होता है भगवदीय, भगवत-योग्य-अमृत, जिसको केवल भगवान् भोगते हैं। भगवान् किस अमृत का भोग करते हैं? अगर भगवान् किसी दूसरे का भोग करते हैं, तो वही भगवान् से मीठा हो गया, परंतु भगवान् किसी दूसरे का भोग करते हैं, तो वही भगवान् से मीठा हो गया, परंतु भगवान् से मीठा कुछ है नहीं- रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दीभवति आनन्दं ब्राह्मणो विद्वान न बिभेति कुतश्चन- परमात्मा से बढ़कर तो कोई आनन्द, रस है नहीं। अब वह परमात्मा किस रस का भोग करेगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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