विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनीसूत्र है वेदान्त दर्शन में- मुक्तोपसृप्य व्यपदेशात्- भगवान् मुक्तोपसृप्य हैं। जब मुक्त हो जाते हैं, जब कुछ पाना शेष नहीं रहता है, तो कहते हैं- आओ-शर्बत ही पियें। यह साँवरा शर्बत है, यह रसवत् है। जब न कुछ लेना, न कुछ देना, स्वर्ग जाने के लिए यज्ञ नहीं करना, समाधि लगाने के लिए योग नहीं करना, अज्ञान मिटाने के लिए ब्रह्माकार वृत्ति नहीं करना, कुछ कर्तव्य शेष है नहीं तब आओ आओ! नन्द के लाड़ले के साथ खेलें। मुक्तोपसृप्य व्यपदेशात्- भाई! श्रुति में साफ कहा है कि मुक्त लोग भी भगवान् का भजन करते हैं। नृसिंह तापिनी में साफ आया है- यं सर्वे नमन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्च- मुमुक्षु भी भगवान् को नमस्कार करें और ब्रह्मवादी भी। शंकराचार्य ने भाष्य किया है- मुक्ताऽपि लीलया निग्रहं कृत्वा भजन्ते- मुक्तलोग भी भजन करते हैं। तो ये श्रीकृष्ण मुक्तों के प्यारे हैं। असल में, बद्ध लोग भला क्या भजन करेंगे। पैसे के साथ बँधे है, भोग के साथ बँधे हैं, स्त्री-पुत्र धन के साथ बँधे हैं, खुद तो उनके कैदी हैं हाथ में हथकड़ी पड़ी हैं, पाँव में बेड़ी पड़ी हैं, जेलखाने में बन्द, वे भगवान् की क्या सेवा करेंगे? सेवा तो असल में मुक्त लोग ही करते हैं। अब आओ- निशम्यगीतं तदनंगवर्द्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः । निशम्यगीतं तदनंगवर्द्धनम्- भगवान् स्वयं सीधे गोपी के कान में मंत्र नहीं फूँका, बाँसुरी द्वारा मंत्र फूँका। बीच में वंशी को रखा, यह मर्यादा है; यही गुरु है। माने भगवान् सीधे जीव को अपनी ओर नहीं बुलाते, गुरु के द्वारा बुलाते हैं। भगवान् ने भी गोपियों को बुलाया। तो बीच में एक प्रतिनिधि रखा; कौन? वंशी। यह वंशी है तो गीत क्या है? आप जानते हैं कि हृदय में जो मधुर भाव का उदय होता है, उसको अभिव्यक्ति देने वाली जो स्वरताल-युक्त शब्दराशि है उसको गीत कहते हैं। कितना प्रेम है हृदय में, यह गीत के द्वारा भगवान् प्रकट कर रहे हैं- गीतम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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