विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी‘माभूदासामनुरपि अधर्मसंस्पर्श इत्यनन्तात्मा’- खींच लिया मन को। अरे! मन ही तो दुनिया की गड़बड़ी पैदा करता है, तो मन को ही हर लिया। गोपियों के शरीररूपी घर में और हृदय रूप पिटारी में मनरूपी रत्न जो बहुत छिपाकर रखा हुआ था, उसको श्रीकृष्ण ने ध्वनि से हर लिया। शब्दबेधी बाम होते हैं न? बाण तो मारने के लिए होते हैं, हरण करने के ले लिए थोड़े होते हैं? अरे! इनकी तो वंशीध्वनि ऐसी है कि जाय भी और वहाँ से माल-मसाला भी निकालकर ले आवे, और किसी को पता ही न चले। यह महाचोर का अस्त्र है, महाचौरास्त्र इसका नाम है। आँख से दिखायी न पड़े, कान के रास्ते हृदय में घुस जाय। ‘मनलेतै देते छटाँक नहीं’- व्रज में बोलते हैं, मन तो ले लें, मन माने मनभर वजन ले तो लेते हैं पर देते छटाँक भर भी नहीं। यह भी अर्थ है कि मन ले लेते हैं पर छटाका अंक भी नहीं देते हैं, छटा की झलक भी नहीं देते। मनोहरम्- ये मनोहर हैं और कलं शब्द का अर्थ बताया था- क्लीं मंत्र- कल माने क्लीं। यह श्रीकृष्ण का सर्वोपरि मंत्रराज है, पर आश्चर्य तो यह है कि काली का भी मंत्र है, सरस्वती भी मंत्र है, कृष्ण का भी मंत्र है, सर्वदेवता इसमें समाये हुए हैं। कलं-क और ल और वामदृशां माने ई और वामदृशां में ऊपर जो बिन्दी है उसको मिलाकर क्लीं- यह मंत्र बनाया श्रीकृष्ण ने। अब आगे चलते हैं। बाँसुरी ने क्या आश्चर्य किया। जैसो गुरुलोग कान में मंत्र फूँककर लोगों के हृदय में आत्मा का आविर्भाव कर देते हैं, वैसे श्रीकृष्ण वंशीध्वनि के द्वारा ऐसी दीक्षा देते हैं गोपियों को कि उनका हृदय कृष्ण की ओर खिंच आवे। यह भी एक प्रकार की दीक्षा है। तो बोले भाई यह हृदयाणी दीक्षा है। कृष्ण का नाम तो मुक्तजनाकर्षकः- मुक्तों को अपनी ओर आकृष्ट करने वाला है। मुक्त लोगों को तो कोई काम रहता नहीं, स्वर्ग में जाना नहीं, वैकुण्ठ से कोई काम नहीं और लोक-परलोक की कोई इच्छा नहीं, तो भगवान् ने कहा कि ये लोग निकम्मे बैठे हैं, जरा हमसे प्रेम ही क्यों नहीं करते हैं। यह तुम्हारी जीभ ख़ाली पड़ी है, बोलो- कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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