विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवानपि०-रास की भूमिका एवं रास का संकल्पबोलीं- बाँसुरी! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं, तुमको आशीर्वाद देती हैं। बाँसुरी बोल उठी- ऐसी क्या सेवा मुझसे संपन्न हुई कि आप प्रसन्न हैं और आशीर्वाद दे रही हैं? तो कहती हैं- कारण यह है कि तुम दिन में चुप रहती हो, हमारे ऊपर करुणा करती हो; ‘यद् वासरे मुरलि के करुणां करोषि।’ दोपहर के समय तुम्हारी आवाज हमारे कान में नहीं पड़ती है, तो हम घर का काम कर लेती हैं- रोटी बना लेती हैं, झाड़ू लगा लेती है, अपने पति की सेवा कर लेती हैं; इसलिए अरी बांसुरी! हम तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हैं। बाँसुरी ने कहा- अच्छा देवी, आप लोगों का प्रसाद, प्रसन्नता सिर पर जो आशीर्वाद देना हो दे लो। बोलीं- पहला आशीर्वाद यह है कि ‘निश्छद्रमस्तु’-
ब्रह्म लोग जब यज्ञ पूरा हो जाता है तब बोलते हैं ‘निश्छिद्रमस्तु।’ बोलीं- सखि! बाँसुरी! तुम भी निश्छिद्रमस्तु हृदय परिपूर्णमस्त- तुम्हारा हृदय भर जाए। और फिर ‘मौखर्यमस्तु’- तुम्हारे अंदर बहुत बोलने का जो दुर्गुण है वह तुम्हारा मिट जाए, बोलती हैं- ‘मौखर्यमस्तु त्वमितमस्तु गुरुत्वमस्तु’; कृष्ण गोवर्धन को तो उठा लेते हैं, पर सखि! तुम इतनी भारी हो जाओ उनके हाथ से न उठो। देखो यह आशीर्वाद के व्याज से शाप है। इसका मतलब यह है कि आप यह समझें कि बाँसुरी उनके चित्त को कितना विकल करती है। यह बाँसुरी तो महाराज! अद्भुत कर देती है। फिर गोपियाँ कहतीं हैं- मुरहर रन्धनसमये मा कुरु मुरलीरवं मधुरम्। हे मुरहर! हे मुरारे! बाँसुरी बजाया करो, लेकिन जब हम रसोई बनाया करें, तब तो न बजाया करो। क्योंकि- नीरसमेधो रसतां कृशानुरप्येति कृशतताम् । क्योंकि हमारी सूखी लकड़ी गीली हो जाती है, हमारी आग बुझ जाती है, बड़ी कठिनाई होती है। रसोईं बनाने का समय बाँसुरी मत बजाया करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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