विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीभगवान ने वंशी बजायीन्यूनता दूर हो गयी। श्रीकृष्ण के लिए रास का मार्ग खोल दिया चंद्रमा ने। ‘वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्।’ अब, श्रीकृष्ण ने संगीत प्रारम्भ किया। यह संगीत भावना का उद्रेक है। जैसे गंगाजी में तरंगें उठती हैं वैसे जब हृदय में प्रेम की तरंग उठती है तब गाना आता है। कोई डंडा उठाकर कहे गाओ नहीं तो मारेंगे, ऐसे नहीं गाया जाता। एक सच्ची बात आपको सुनाते हैं- बिहार में एक बेतिया राज्य था। है तो, क्या कहें, वहाँ तो भस्मावेशेष ही है उसका, खण्डहर बचा हुआ है। नारायन! तो वहा राजा अपने पास बच्चे रखता था और उनसे कहता था कि हमसे प्रेम करो। दस-पांच बच्चे, लड़के रहते थे उसके पास। एकबार क्या हुआ- उसने हुकुम दिया कि तुम हमसे प्रेम करो। लड़के ने मना कर दिया तो पहले तो कोड़े से उसे खूब पिटवाया, फिर बोले कि प्रेम करो। रोने लगा बेचारा, बालक था पंद्रह सोलह बरस का। उसके बाद उसे अपनी पुलिस को दे ददिया कि इसे जेल में बंद कर दो। उनकी पुलिस भी थी और उनके यहाँ हमारे पहचान के मजिस्ट्रेट थे। उस मजिस्ट्रेट का हमें नाम भी मालूम है। हमारे गाँव के पास के ही थे और उन्होंने ही ये बात सुनायी भी थी। मुकुट बिहारी सिंह उनका नाम था। नारायण!!! मजिस्ट्रेट ने हमको सुनाया। हमको तो मालूम था, कि कैसे जेल में भेजा जाता है। हमने लिखकर पूछा कि किस कानून के अनुसार इसको जेल में भेजें? तो राजा बड़ा नाराज हुआ बोले कैसे मजिस्ट्रेट हो तुम, कि हमारे हुकुम से भी जेल में नहीं भेज सकते? मजिस्ट्रेट बोले कि भले तुम हमें निकाल दो, लेकिन हम बच्चे को जेल में नहीं भेजेंगे। तो, मार-मारकर प्रीति नहीं चाहा जाता है। प्रीति हृदय में उदय होती है, प्रीति हृदय का रस है, प्रीति हृदय का विकास है। प्रीति हृदय का उल्लास है। ज्ञान के उल्लास का नाम प्रीति है। जैसे गंगाजी में शीतल मन्द-सुगन्ध वायु के चलने पर झिल-मिल-झिल-मिल रोशनी झलकती है, तरंगें उठती हैं, वैसे ही हृदय में प्रेम की तरंग उठती है। प्रेम की बोली का नाम संगीत है और प्रेम की चाल का नाम नृत्य है। ये श्रीकृष्ण प्रेम की मूर्ति हैं। जगौ कलं- कलंक का अर्थ है अस्फुट और मधुर। जैसे-जैसे बच्चे तोतली बोली बोलते हैं तो उनको बोलते हैं कल वाक्य। कल माने होता है मधुर लेकिन अस्फुट। ‘कलं तु मधुरास्फुटे।’ कोशकार कहते हैं- कल माने मधुर और अस्फुट। बहुत मीठी बांसुरी बजायी कृष्ण ने, लेकिन अस्फुट था स्वर! अस्फुट था माने जो सुने, उसको यह मालूम पड़े कि हमारा ही नाम ले रहे हैं। जैसे ललिते! विशाखे! राधे! चंद्रावली! एक-एक गोपी को ऐसा मालूम पड़े कि हमारे नाम की रट लगा रहे हैं। ये हुई अस्फुटता और मिठास इतनी कि सबके प्राण खिंच आवें- जागौ कलं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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