विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शनजिसने न तो चिकोटी की तकलीप देखी और न प्यार का मजा देखा- जिसने यह देखा कि यह हमारा प्यारा है, उसकी क्रिया पर नजर नहीं गयी, उस पर नजर गयी। एक बार तमाचा जड़ दिया उसने और एकबार चूम लिया और दोनों में यह मालूम पड़ता है कि यह हमारा प्यारा है, उसका नाम प्रेमी है- अद्वैतं सुखदुः खयोरनुगुणं सर्वास्ववस्थासु यत्, भले मानुष को यह प्रेम मिलता है। सुख में सुख देने वाला, जो दुःख में दुःख देने वाला भी वही। प्रेमास्पद के सिवाय ईश्वर भी प्रेमी को सुख-दुःख नहीं देता। प्रेमी ईश्वर के राज्य से बाहर निकल जाता है, प्रेमी को ईश्वर बुखार नहीं देता, बोले- अपना प्रियतम जरा रूठ गया तो बुखार आ गया। प्रियतम ने वह बुखार दिया, ईश्वर नहीं। एकदिन वजन बढ़ गया, कैसे? तो कहा- एक दिन जरा हँस कर उन्होंने देख लिया था। अद्वैतं सुखदुःखयोरनुदिनं सर्वासु अवस्थासु यत्- अरे सोते भी हैं तो उसके लिए, सपना भी देखते हैं तो उसके लिए, जागते हैं उसके लिए, गरीब हो जाते हैं उसके लिए, धनी हो जाते हैं उसके लिए। मरते हैं उसके लिए, जिन्दा हो जाते हैं उसके लिए- सर्वासु अवस्थासु यत्। दिल चाहे जितना भटक आवे दुनिया में, चाहे जो-जो देख आवे, चाहे जो-जो खा आवे, मांग आवे लेकिन विश्राम मिलता है उसी के पास। बुढ़ापे से यह प्रेम घटता नहीं। ज्यों-ज्यों समय बीतता है त्यों-त्यों यह गाढ़ा होता है। जैसे- दूध को जितनी-जितनी आँच लगती है उतना-उतना। उसका मजा निकलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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