विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शनवृत्रासुर के प्रसंग में भी आया है- अजातपक्षा एव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्त्ताः । हे कमलनयन; प्यारे श्यामसुन्दर। मेरा मन तुम्हारा दर्शन करने के लिए व्याकुल हो रहा है- कैसे? जैसे- प्रेयसी का मन अपने प्रियतम के दर्शन के लिए व्याकुल होता है- प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा बहुत दिन से परदेश गया प्रियतम और प्रेयसी उसके लिए विषण्ण-विषादग्रस्त-व्याकुल और उसका रोम-रोम चाहता है कि प्यारे का दर्शन होवे। बिना चाह के, बिना व्याकुलता के प्यारे का दर्शन नहीं होता। यह प्रिय शब्द प्रेम शब्द का मूल है। धातु ‘प्रीञ्’ है और इससे पहले ‘प्रिय’ शब्द बनती है और फिर भाव में ‘प्रेमा’ या ‘प्रेम’ शब्द बनता है, दोनों तरह का बनता है। ‘प्रीञ्’ धातु से प्रयति-प्रयते-प्रीणाति, भिन्न-भिन्न गणों, में भिन्न-भिन्न गणियाँ बनाती हैं- प्रियते, प्रीणाति, प्रीणयति, प्राययति- तरह तरह के रूप बनते हैं। तो प्रीणाति इति प्रियः प्रीञ् तर्पणे- जो अपने प्रेमी को तृप कर दे उसका नाम प्रेम है। जिसको देखकर आँख तृप्त हो जाय जन्म अबधि हम रूप निहारे-नयन न तिरपित भयेल जैसे चकोर चंद्रमा के दर्शन का प्यासा है वैसे आँखें जिसके दर्शन की प्यासी हैं और दर्शन करके आनन्द लेती भी जाती हैं और अतृप्त रहती हैं, उसका नाम होता है प्रिय। जिसकी आवाज सुनने के लिए, जिसका वचन सुनने के लिए कान प्यासे रहते हैं, जिसको छूने के लिए त्वचा प्सासी रहती है, जिसको सूँघने के लिए नासिका प्यासी रहती है, जिसका स्वाद लेने के लिए जिह्वा प्यासी रहती हैं, एक क्षण जिसकी याद भूल जाए तो मन व्याकुल हो जाता है, उसको बोलते हैं प्रिय, जिसके बिना किसी भी इन्द्रिय को तृप्ति नहीं है, न आँख को, न कान को, न त्वचा को, न नाक को, न जीभ को, न दिल को, न दिमाग को, जिसके बिना जीवन में तृप्ति आती ही नहीं है, उसका नाम प्रिय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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