राम यौं भरत बहुत समुझयौ।
कौसिल्या, कैकई, सुमित्रहिं, पुनि-पुनि सीस नवायौ।
गुरु वसिष्ट अरु मिलि सुमंत सौं, अतिहीं प्रेम बढ़ायौ।
बालक प्रतिपालक तुम दोऊ, दसरथ-लाड़ लड़ायौ।
भरत-सत्रुहन कियौ प्रनाम, रघुवर तिन्ह कंठ लगायौ।
गदगद गिरा, सजल अति लोचन, हिय सनेह-जल छायौ।
कीजै यहै विचार परसपर, राजनीति समुझायौ।
सेवा मातु, प्रजा-प्रतिपालन, यह जुग-जुग चलि आयौ।
चित्रकूट तैं चले खान-तन, मन विस्राम न पायौ।
सूरदास बलि गयौ राम कैं, निगम नेति जिहिं गायौ॥ 55॥