राम मिलण रो घणो उ़मावो -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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विरह निवेदन

राग प्रभाती


राम मिलण रो घणो उ़मावो, नित उठ जोऊँ बाटडियाँ ।।टेक।।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त है आँखडियाँ ।
तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी बिरह की पाशडियाँ ।
अब तो बेगि दया करि साहिब, मैं तो तुम्‍हारी दासडियाँ ।
नेण दुखी दरसण कूँ तरसैं, ना भिन बैठे साँसडियाँ ।
राति दिवस यह आरति मेरे, कब हरि राखै पासडियाँ ।
लगी लगनि छूटण की नाहीं, अब क्‍यूँ कीजै आँटडियाँ ।
मीराँ के प्रभु कबर मिलोगे, पूरौ मनकी आसडियाँ ।।108।।‍[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मिलणरो = मिलने का। गणों = घना, गहरा। उमावो = उमंग, लालसा। बाटडियाँ = बाट, मार्ग। जक = चैन। आँखडियाँ = आँखों में। बीता = बीते। पाशडियाँ = फाँसी। साहिब = स्वामी, प्रियतम। दासडियाँ = दासी। बैठे = ठहरती। साँसडियाँ = साँस। आरति = उत्कट अभिलाषा। पासडियाँ = पास, निकट। लगण = प्रेम। छूटण = छूटने की। आँटडियाँ = आँट, बैर या उपेक्षा। पूरौ = पूरी करो। आसडियाँ = आशायें।

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