रामहिं राखौ कोऊ जाइ।
जब लगि भरत अयोध्या आवैं कहत कौसिला माइ।
पठवौ दूत भरत कौं ल्यावन, वचन कह्यो बिलखाइ।
दसरथ-वचन राम वन गवने, कह कहियौ अरथाइ।
आए भरत, दीन ह्वै बोले, कहा कियौ कैकइ माइ?
हम सेवक वै त्रिभुवनपति कत स्वाोन सिंह-बलि खाइ।
आजु अयोध्या जल नहिं अँचवौं, मुख नहिं देखैं माइ।
सूरदास राघव-बिछुरन तैं, मरन भलौ दव लाइ॥47॥