राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 49

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीकृष्णप्रवचनगोपी-प्रेम

 (दोहा)

तीन लोक चौदह भुवन प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं।
पर- जगमग ह्वै रह्यौ रूप सौं श्रीबृंदाबन माँहि ।।
और-ढूँढ़ि फिरैं त्रैलोक जो, मिलत कहूँ हरि नाहिं।
पर- प्रेमरूप दोउ एकरस बसत निकुंजन माँहि।।

हम दोऊ स्वरूप प्रेम-निकुंज के देवता हैं, और ये गोपी हमारी पुजारिन है, प्रेम की आद्याचार्य हैं। प्रेम-संप्रदाय गोपिन ते ही चल्यौ है, प्रेम की पद्धति इननें ही चलाई, और प्रेम कौ स्वरूप इननें हीं जगत कूँ दरसायौ है। यदि ये गोपी नहीं होतीं, तौ, प्रेम-शब्द ग्रंथन में हीं रहि जातौ। श्रीनारदजी ‘यथा व्रजगोपिकानाम्’ कहि कैं अपने ग्रंथ ‘भक्तिसूत्र’ में कौन कौ दृष्टान्त देते। और जो गोपी न होतीं तौ स्वयं मेरौ जो बाक्य- ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरण ब्रज’ है, याकौ स्वरूप प्रत्यक्ष करि कौन दरसावतौ। अजी, गोपी न होतीं तौ मेरी माखन-चोरी-लीला, पनघट-लीला, दान-लीला, मान-लीला, होरी-लीला, बंसी-लीला और रास-लीला नहीं होतीं। रसिकजन लुटि जाते, और स्वयं मैं हूँ पूरे ते आधौ रहि जातौ-पूर्णतम् स्वरूप ते न्यूनतम रहि जातौ! और यदि गोपी न होतीं तौ भक्ति जुबती ते फेर वृद्धा है जाती। श्रीनारदजी नें भक्ति सौं कही ही-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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