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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीसिद्धेश्वरी-लीला(तुक)
परंतु पूरौ नाम नहीं आधौ ही नाम लियौ, तब ही वाकौ उद्धार है गयौ। दूसरौ प्रमान द्रौपदी कौ है-
भैयाऔ! पहलें तौ द्रौपदी दुःसासन सौं आप जूझी, परंतु दुःसासन वाके केसन कूँ पकरि कैं सभा में खेंचतौ भयौ लै गयौ। फिर द्रौपदी नें अपने पतिन की ओर निहार्यौ, उनने हूँ नीची ग्रीवा करि लीनी। फिर सभा में बैठ गये भीष्म, द्रोनादिकन की ओर गुहार्यौ, उनने हूँ अपने आँख कान बंद करि लीने। भैयाऔ! सब बल गयौ, तब निर्बल बनी। अपने साँवरे सखा की याद आई। तौ हू पूरी सरन न गई, एक हाथ सौं सारी पकरि अपनौं बल करती गई और दूसरौ हाथ उठाय रोय कैं ‘कहि कैं टेरी। किंतु वे काहे कूँ सुनते। जब ताईं जीव एक तृन कौ हू आस्रय लिये भये हैं तब ताईं भगवान नहीं सुनै है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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