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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीसिद्धेश्वरी-लीलाभैयाऔ, सब मिलिकैं प्रेम सौं ‘हरी’ बोलौ। ऐसैं नहीं, दीन हैकैं, गरीब हैंकैं बोलौ। कारन कि वे दीनानाथ हैं, गरीब-निवाज हैं। जब जीव दीन बिन जाय है, तब अजा सिंह कूँ खाय जाय है। और चैंटी हाथी कूँ मसल डारै है। कारन कि ‘निरबल के बल राम’। निरबल के द्वै अर्थ हो य है। ‘निर्गतो बलं यस्मात्’ जामैं सौं बल निकरि गयौ होय, वोहू निर्बल है। ‘निःशेषं अशेषं बलं यस्मिन्’ अर्थात् जामैं असीम बल होय, वोहू निर्बल है। और जो जन अपने बल सौं बलवान बनैं हैं, वो पहिली कोटि के निर्बल हैं अर्थात् दूबरे हैं। जो भगवद् बल सौं मस्त हैं, वे दूसरी कोटि के निर्बल हैं अर्थात् असीम बलवारे हैं। जो बंसी की तरह सन्य है जायँ हैं, वाही मैं बिस्व कूँ उलट पुलट करि दैबे की सक्ति आय जाय है। जो जीव निर्धन बनि जाय है, वही परम धन कँ पाय लेय है। यासौं भैयाऔ, निज अहंकार तजि प्रेम सौं ‘हरि’ बोलौ। अब निरबल के बल मैं प्रमान सुनौं।
भैयाऔ, जब गज कूँ ग्रांह नें पकरि लियौ, तब पहिलें तौ वानें अपनौं बल लगायौ, फिर वाकी हथिनीन नें बल लगायौ, फिर बन के सब हाथीन नें मिलि कैं बल लगायौ, किंतु ग्राह के आगे सब बल व्यर्थ गयौ। और गज पानी मैं डूबतौ ही गयौ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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