श्रीजी- हे देवांगने, आप देबी हौ, जोग-सिद्धि आदि जानौ हौ। मैं तो मनुष्यलोक में रहिबेवारी हूँ, आपकी बराबरी नायँ करि सकूँ, परंतु मैंने जो कछु कही वा पै बिस्वास करौ तब तौ आगें हू कछु कहूँ, अन्यथा व्यर्थ में क्यौं बोलूँ?
देवी- अजी, बिस्वास करायबे की आपमें सक्ति होयगी तौ क्यौं न बिस्वास करूँगी? परंतु यदि आप बिस्वास कराय ही नहीं सकौगी तौ मैं आपके प्यारे कूँ प्रेमी कैसैं मानूँगी।
श्रीजी- हे सखी, आप तौ परिहास करिबे में चतुर हौ।
देवी- हे राधे, आप उनके मन की बात जानौ हौ, यामें कछू ही संदेह नहीं, परंतु वे आपके मन की बात कूँ जानैं हैं कि नहीं, ये तौ बताऔ।
श्रीजी- हे सखी, ये बात क्यौं पूछौ हौ?
देवी- हे राधे, मैंने ये प्रस्न बड़ी ही ढीठता सौं कियौ है, यासौं सब रहस्य गुप्त न राखि कैं मेरे सनमुख ठीक-ठीक कहौ।
श्रीजी- हे देवांगने, प्यारे मेरे हृदय में निवास करैं हैं और मैं प्यारे के हृदय में समाई भई हूँ। प्यारे मेरे मन की बात कूँ जानैं हैं और मैं प्यारे के मन की बात कूँ जानूँ हूँ। और वास्तव में तौ ये सब आरोप मात्र हैं। हम दोनों सत्य सत्य एक ही आत्मा में ओत-प्रोत दो सरीर भर हैं।