देवी- क्यों जी, बियोग में कहा सुख है?
श्रीजी- अजी, मधुर-रस की पुष्टि संजोग और बियोग दोनूँन ते ही होय है।
देवी- अजी, तौ हू आपकूँ तौ कष्ट ही दियौ?
श्रीजी- देखौ, हित की इच्छा करिबेवारौ जो मित्र है, वो मित्रकूँ यदि कबहूँ कष्ट देय है तो भविष्य में अधिक सुख दैवे के ताईं ही देय है। जैसैं कोई तीखे अंजन कूँ आँखिन में आँजै वा समय अपनी दृष्टि कूँ जरन पीड़ा दै है परंतु पीछें अपनी दृष्टि कूँ अतिसय दीप्त करिबे के लिए ही वह ऐसौ करै है। सो हे देवांगने, प्रियतम ने मोकूँ प्रेम ते कंधा तर में चढ़ाय लई और दो पैंड़ लै जाय कह्यौ कि छन मार तुम यहाँ विश्राम करौ, फिर कोमल स्थान पर बैठाया आप छिपि कैं वही रहते भये।
यासौं वे रास में छाड़िबे में अपराधी नहीं है। फिर तुम ने कही कि उनने पूतना, अघासुर, बकासुर मार दिये सो श्रीगर्गाचार्य जी ने स्पष्ट कही है कि उनके हृदय में बिष्नुसक्ति कौ निवास है। ये बिष्नु-सक्ति संत जनन कूँ सुख दैबेवारी है, सो ये सब कर्म बिष्नु-सक्ति कौ है।
देवी- हे राजकुमारी, आप अच्युत जोगसास्त्र कूँ कहा जानौ हौ? तभी तौ आपमें प्रियतम के मन में प्रबेस करिबे की सक्ति है।