राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 242

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीप्रेम-सम्पुट लीला

अजी, वाकें लोक-लज्जा तथा धर्म दोनों ही नहीं है और वो दया-मार्ग में तौ कबहूँ चल्यौ ही नहीं है। वानें बाल-अवस्था में तो पूतना मारी और पौंगड अवस्था में बत्सासुर कूँ मार्यौ और तरुन अवस्था में वृषासुर की हिंसा करी।

श्रीजी-
मम प्रीतम के रूप में चित्तकर्षन मंत्र।
तिमि तुम हू में है कछू मन-आकर्षन तंत्र।।

हे सुभगे, जैसैं प्यारे प्रीतम में सर्वजन्म के चित्त कूँ आकर्षित करिबे की एक बिलच्छन सक्ति बिराजमान है, ऐसें आपमें हू सर्वजन के चित्त कूँ खैंचिवे की एक सक्ति बिराजमान है। यद्यपि तुम मेरे प्यारे की खूब पेट भरि कैं निन्दा कर रही हौ, तौ हू मेरे मन में तुम्हारे प्रति अनुराग घटि नहीं रह्यौ है। वैसैं इतनौ तौ मैं निस्चय जान गई कि तुम कूँ प्रेम की पवन हू नाँय लगी।

देवी- हे किसोरी, आप मोकूँ प्रेम-रत्न दिखावौ, मेरी बड़ी तीव्र इच्छा है।

श्रीजी-
सखी बनौ, ब्रज में रहौ, यही धरौ जिय नेम।
भाव-रतन-मंजूष कूँ खोल दिखाऊँ प्रेम।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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