हे सखी, ऐसौ जो रास भयौ सो सत्य है ना?
श्रीजी- हाँ जी, सत्य है।
देवी- और फिर वा समय गोपिन कूँ त्यागि आपमें प्रेम प्रगट कियौ। तत्पस्चात् आपकूँ थकी भईं कूँ अकेली बन में छाँड़ि अति दुखित कियौ। और फिर अत्यंत करुन स्वर में आपकौ बिलाप, गाढ़ी मूर्च्छा, अति भ्रम-चेष्टा जो-जो भई, सौ जन्म ते हमारे हृदय में विद्यमान है। हे राजकुमारी! आपमें मेरौ मन ऐसौ लगि गयौ है कि न तो वह स्वर्ग जायबे कूँ समर्थ है और न यहाँ ही ठहरिबे के जोग्य है, या ही सौं सर्बदा घूमती ही रहूँ हूँ। कहूँ मेरो मन स्थिरता कूँ प्राप्त नहीं होय है। आज मैंने बहुत दिनन के पस्चात् आपके आगें अपने मन कौ भाव प्रगट कियौ है।
श्रीजी- जो मोकूँ चित चहत है, तो तुम रहौ समीप।
देवी- यहाँ ना रहौं।
श्रीजी- क्यों ना रहौ।
देवी- सुनो बिनय कुलदीप! अजी, या कौ कारन और ही है, सो मैं आपकूँ सुनाऊँ हूँ। मैं कृष्न तें बहुत ही डरूँ हूँ।
श्रीजी- तुम उन सौं इतनी क्यौं डरौ हौ।
- देवी-
- जाके लज्जा-धर्म नहिं दया-मया नहिं कोय।
- ऐसे हृदय कठोर ते डरनौ ही सुभ होय।।