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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला
- बिहरत रति अबिरुद्ध जुद्ध सुरत रस सागर।
- उज्ज्वल प्रेम उजाकर नागर सब गुन आगर।।
- हार-हार में उरझि-उरझि बहियाँ में बहियाँ।
- नील पीत पट उरझ, उरझ नथ बेसर महियाँ।।
- रस भरे सुंदर अंग सरस अति मिलत ललित गति।
- अंसनि पर भुज दियें लटकि सोभा सोभित अति।।
- टूटी मुक्तामाल छूटि रहि साँवरे उर पर।
- मानौं गिरि तें सुरसरि द्वै बिधि धार धँसी धर।।
- अद्भुत रस रह्यौ रास, गीत धुनि सुनि मोहे मुनि।
- सिला सलिल ह्वै चली, सलिल ह्वै रह्यौ सिला पुनि।
- रीझि सरद की रजनी सजनी केतिक बाढ़ी।
- बिलसत अतिसय स्याम जथारुचि अति रति गाढी।।
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