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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला
- राग-रागिनी सम जिन कौ बोलिबौ सुहायौ।
- सो कैसैं कहि आवै, जो ब्रजदेबिन गायौ।
- ग्रीव-ग्रीव भुज मेलि केलि कमनीय बढ़ी अति।
- लटकि-लटकि वह निरतनि कापै कहि आवै गति।।
- छबि सौं नृत्यत मटकन लटकन मंडल डोलत।
- कोटि अमृत सम मुसकन मंजुल ताथेइ बोलत।।
- कोउ उन ते अति गावत सुलप लै नइ-नइ।
- सब संगीत जु छेकें सुंदर गान करत भइ।।
- अप-अपनी गति भेद तहाँ नृत्य करत तब।
- गंध्रब मोहे तिहि छन सुंदर गान करत जब।।
- भुजदंडन सौं मिलत ललित मंडल नृत्यत छबि।
- कुंडल कुच सौं उरझि मुरझि रहे तहँव डरे कबि।।
- पिय के मुकुट की लटकनि मटकनि मुरली-रव अस।
- कुहुक-कुहुक मनों नाचत मंजुल मोर भरें रस।।
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