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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीरासपञ्चाध्यायी लीलाअर्थ- हे गोपियौ! तुम ने मेरे ताईं लोकमर्यादा, वेदमार्ग, सगे-संबंधीन कूँ छोड़ि दियौ है। ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहूँ न जाय, अपने सौंदर्य और सुहाग की चिंता न करिबे लगै, निरंतर मोही में लगी रहै, याही सौं परोच्छ रूप ते प्रेम करती भयौ ही छिप्यौ हौ, यासौं तुम मेरे प्रेम में दोष मत निकारौ।
अर्थ- हे ब्रजदेबियौ, तुमने मेरे लियें गृहस्थ की बेरी कौं तोरि दियो है, जाकूँ बड़े-बड़े योगी हू नहीं छोड़ि सकैं हैं। मोते तुम्हारौ यह मिलन, आत्मिक संजोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है। यदि देवतान की सी आयु मैं पाय लऊँ तौ हू आपके उपकार कौ बदलौ नाँय दै सकूँ। यदि आप ही अपने मुखन सौं यों कहो- कृष्ण! तुम भले-बुरे जैसे हू हौ हमारे ही हौ, तब भलें ही या रिन सौं छूटूँ। नहीं, सौ जन्म ताईं मैं आपके या रिन सौं नहीं छूट सकूँ हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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