- समाजी-
- जदपि जगत-गुरु नागर नगधर नंद-दुलारे।
- पै गोपिन के प्रेम अग्र अपने मुख हारे।।
- तब बोले ब्रजराज कुँअर, मैं रिनी तुम्हारौ।
- अपने मन ते दूर करौ यह दोष हमारौ।।
(श्लोक)
अर्थ- हे गोपियौ, मैं प्रेम करिबेवारेन तें ठीक प्रेम नहीं करूँ हूँ; कारन, वाके प्रेम कूँ बढायवे के लिए- जैसैं काहू दरिद्री कूँ बहुत सौ धन मिलि जाय और फिर वापै ते खोय जाय तो कितनी तृष्णा बढै है, वैसैं ही मैं हूँ मिलि कैं छिपि जाऊँ हूँ।
- (श्लोक)
- एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि वो मय्यनुवत्तयेऽवलाः।
- मया परोक्षं भजता तिरोहितं मसूयितुं मार्हथ तत्प्रियं प्रियाः ।।21।।