राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 207

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला

समाजी-
जदपि जगत-गुरु नागर नगधर नंद-दुलारे।
पै गोपिन के प्रेम अग्र अपने मुख हारे।।
तब बोले ब्रजराज कुँअर, मैं रिनी तुम्हारौ।
अपने मन ते दूर करौ यह दोष हमारौ।।

(श्लोक)
अर्थ- हे गोपियौ, मैं प्रेम करिबेवारेन तें ठीक प्रेम नहीं करूँ हूँ; कारन, वाके प्रेम कूँ बढायवे के लिए- जैसैं काहू दरिद्री कूँ बहुत सौ धन मिलि जाय और फिर वापै ते खोय जाय तो कितनी तृष्णा बढै है, वैसैं ही मैं हूँ मिलि कैं छिपि जाऊँ हूँ।

(श्लोक)
एवं मदर्थोज्झितलोकवेदस्वानां हि वो मय्यनुवत्तयेऽवलाः।
मया परोक्षं भजता तिरोहितं मसूयितुं मार्हथ तत्प्रियं प्रियाः ।।21।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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