राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 180

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला

श्रीजी-

(श्लोक)

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज।
दास्यास्ते कृपणाया में सखे दर्शय संनिधिम्।।

अर्थ- हा नाथ, हा रमण, हा प्रेष्ठ, हा महाभुज, तुम कहाँ हौ, कहाँ हौ, मेरे सखा? मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हैं, सीघ्र ही मोकूँ दरसन देऔ।
(श्लोक)

यावन्न जीवितमिदं बहिरेति लोलं तावद्विमुच्य रुषमक्षिपथं प्रयाहि।
नो चेदजीवितमिंद वपुरस्मदीयं वोढासि तत्त्वमहहांसशठेन सत्यम्।।

अर्थ- हे प्यारे! जब ताई मेरे प्रान नायँ निकसैं, तब ताईं रोष छोड़ि कैं दरसन देऔ। प्यारे! यदि आप यौं कहौ कि ‘मेरे बिना घरी-द्वै-घरी तौ प्रान रहैंगे’ सो नहीं; कारण कि ये प्रान बड़े चंचल हैं, इनने अपने स्थान कौ हू परित्याग करि दियौ है और यदि आप यों सोचौ कि ‘यदि तुम्हारे प्रान निकसि ही जायँगे तौ याते हमारी कहा हानि है?’ सो या बात कूँ मैं जानूँ हूँ कि आपकौ मेरी बीच में अत्यंत प्रेम है, याते मेरे बियोग कौ दुख आप कूँ अवस्य होयगो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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