(तुक)
- भृंगी भय तैं भृंग होत इक कीट महाजड़।
- कृष्न-भगति तैं कृष्न होत कुछ नहिं अचरज बड़।।
(दोहा)
- कुंज कुंज ढूँढत फिरीं खोजत दीन-दयाल।
- प्राननाथ पाये नहीं (तब) बिकल भईं ब्रजबाल।।
(श्लोक)
- एवं कृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरून।
- व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः।।
- अरी सखियौ! चलौ, दूसरे बन में ढूँढ़ैंगी।
[सखी सब ढूँढ़ती भईं आगैं पधारैं।] [फिर ठाकुरजी एवं श्रीजी पधारैं।]
ठाकुरजी- हे प्यारी! यहाँ काँकर और तृन-कंटक बहुत हैं, सो मैं आपकूँ गोदी में लै लऊँ।– [थोड़ी दूर लै चलनौ] हे प्यारी! आप यहाँ विराजौ, मैं आपको बेनी गूँथिबे कूँ फूल लै आऊँ।