(श्लोक)
- अकारुण्यः कृष्णो यदि मय तवागः कथमिंद
- मुधा मा रोदीर्मे कुरु परमिमामुत्तरकृतिम् ।
- तमालस्य स्कन्धे सखि कलितदोर्वल्लरिरियं
- यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठति तनुः ।।
अर्थ- जमुना किनारें जो तमाल बृच्छ दीखै है, वाकौ वर्ण मेरे प्रीतम-जैसौ स्याम है। बस, मेरे लिए इतनौ ही पर्याप्त है कि वा तमाल बृच्छ की मोटी साखा पै मेरे मृतक सरीर कूँ लिटाय दीजौं और मेरे दोऊ हाथन कूँ तमाल- साखा सौं लपेट अच्छी तरह बंधन लगाय दीजौं कि जासौं चिरकाल ताईं मेरौ यह सरीर बृंदावन में ही तमाल-साखा पै बिस्राम करतौ रहै। परंतु वा चित्र कूँ तौ एक बार औरहू देखि लऊँ, साच्छात तौ वा त्रैलोक- मोहन मुख चंद्र कूँ नहीं देख सकी? प्रान निकरिबे ते पहिलें वा चित्र कूँ औरहू दिखाय दै, जासौं मेरे प्रान सीतल है जायँ और वा त्रिभंग-सुंदर छबि में अनंत काल के ताईं लीन है जायँ।
सखी- प्यारी, वह चित्र तौ घर है।
श्रीजी- हाय! हाय! इतनौ हूँ सौभाग्य नहीं। आऔ, प्यारे प्रानेस्वर!