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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला
- द्वितीय अध्याय
- समाजी-
(श्लोक)
- अंतर्हिते भगवति सहसैव व्रजांगनाः ।
- अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम्।।
- मधुर बस्तु ज्यौं खात निरंतर, सुख तौ भारी।
- बीच-बीच कटु-अम्ल-तिक्त अतिसै रुचिकारी।।
- ज्यौं पट पुट के दियें निपट अति सरस परै रँग।
- तैसेहिं रंचक बिरह प्रेम के पुंज बढ़त अँग।
- जिन के नैन निमेष ओट कोटिक जुग जाहीं।
- तिन के गह्वर कुंज ओट दुख अगनित आहीं।।
- ठगी रहीं ब्रजबाल लाल गिरिधर पिय बिनु यौं।
- निधन महानिधि पाइ बहुरि ज्यौं जाई भई त्यौं।
- ह्वै गई बिरह-बिकल, तब बूझत द्रुम बेली बन।
- को जड को चैतन्य, कछु न जानत बिरही जन।।
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