राधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ पृ. 156

श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ

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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला

द्वितीय अध्याय
समाजी-

(श्लोक)

अंतर्हिते भगवति सहसैव व्रजांगनाः ।
अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम्।।
मधुर बस्तु ज्यौं खात निरंतर, सुख तौ भारी।
बीच-बीच कटु-अम्ल-तिक्त अतिसै रुचिकारी।।
ज्यौं पट पुट के दियें निपट अति सरस परै रँग।
तैसेहिं रंचक बिरह प्रेम के पुंज बढ़त अँग।
जिन के नैन निमेष ओट कोटिक जुग जाहीं।
तिन के गह्वर कुंज ओट दुख अगनित आहीं।।
ठगी रहीं ब्रजबाल लाल गिरिधर पिय बिनु यौं।
निधन महानिधि पाइ बहुरि ज्यौं जाई भई त्यौं।
ह्वै गई बिरह-बिकल, तब बूझत द्रुम बेली बन।
को जड को चैतन्य, कछु न जानत बिरही जन।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

क्रमांक विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला 1
2. श्रीसाँझी-लीला 27
3. श्रीकृष्ण-प्रवचन-गोपी-प्रेम 48
4. श्रीगोपदेवी-लीला 51
5. श्रीरास-लीला 90
6. श्रीठाकुरजी की शयन झाँकी 103
7. श्रीरासपञ्चाध्यायी-लीला 114
8. श्रीप्रेम-सम्पुट-लीला 222
9. श्रीव्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला 254
10. श्रीसिद्धेश्वरी-लीला 259
11. श्रीप्रेम-परीक्षा-लीला 277
12. श्रीप्रेमाश्रु-प्रशंसा-लीला 284
13. श्रीचंद्रावली-लीला 289
14. श्रीरज-रसाल-लीला 304
15. प्रेमाधीनता-रहस्य (श्रीकृष्ण प्रवचन) 318
16. श्रीकेवट लीला (नौका-विहार) 323
17. श्रीपावस-विहार-लीला 346
18. अंतिम पृष्ठ 369

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