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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला
ठाकुरजी- हे गोपयौ! जब साँचौ पति नायँ मिलै, तब ताईं ही प्रतिमा की सेवा करनी चाहियै- जब साँचौ पति आय गयौ, तब झूठे पति की सेवा क्यौं करै?
(सखिन कौ हँसनौ)
सखियाँ- बलिहार, बलिहार, महाराज! आपकौ ही मुख, आपकौ ही न्याव है।
ठाकुरजी- कैसें?
सखियाँ- हे महाराज! सबके साँचे पति तौ आप ही हो। जब ताईं आप नायँ मिले, हमने झूठेन की हू पूजा कीनी। अब तौ हम आपकी ही सेवा करैंगी।
ठाकुरजी- (स्वगत)
पद (राग-बिहाग, ताल त्रिताल)
- मोहि बिना ये और न जानैं।
- बिधि-मरजाद, लोक की लज्जा, तृन हू तैं घटि मानैं।।
- इन मोकौं नीकैं पहिचान्यौ, कपट नहीं उर राख्यौ।
- ‘साधु-साधु’ पुनि-पुनि हरषित ह्वै, मनहीं मन यह भाष्यौ।।
- पुनि हँसि कह्यौ निठुरता धरि कैं, क्यौं त्याग्यौ कुल-धर्म।
- सूर स्याम मुख कपट, हृदय रति, जुबतिनि कौं अति मर्म।।
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