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श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीप्रेम-प्रकाश-लीलावाते दो ही पहर पहिलें श्रीकृष्ण कूँ आत्मसर्पन करि चुकी ही, फिर वा चित्र पै आसक्ति भई, और थोरी देर में सब भलि वा बंसी के नाद प्रवाह में बह गयी, उन्मादिनी है गई, सब सुधि-बुधि भूलि गई। ओह! धिक्कार है मो जैसी कूँ कि जानें तीन पुरुषन कूँ आत्मसमर्पन कियौ, तीन पुरुषन कूँ प्यार कियौ। उन तीनोंन के प्रति हृदय में रति उत्पन्न भई। ऐसे जीवन सौं तौ मृत्यु ही श्रेष्ठ है। ऐसे सरीर कूँ अब नहीं राखूँगी, याकूँ तौ अब जमुना के ही भेट करूँगी।’ (भागि कैं यमुना की ओर जानौ; सखी-अंक में भरि लेय) सखि- प्यारी! हमें कौन के सहारें छोड़ि रही हौ? और आप कहि रही हौ कि मैंने तीन पुरुषन सौं प्यार कियौ, सो वे तौ तीन्यौ एक ही हैं- नाम कृष्न कौ, चित्र हूँ कृष्न कौ और बंसी हूँ कृष्ण की! आप नैंक धीरज धरौ। श्रीजी- बहिन! तू क्यौं रोवै है, यामें तेरौ कछू दोस नायँ। तैंने तौ श्रीकृष्ण सौं मिलायबे के अनेक प्रयत्न किए, किंतु तू मेरे मंदभाग्य कूँ कैसैं पलटि सकै है। (कंकन उतारि कै सखी कूँ दैनौं) लै, बहिन बिसाखे! ये मेरौ स्मृति-चिह्न मेरी प्यारी सखी ललिता कूँ दै दीजौं। किंतु तोय दैबे जोग्य मेरे पास कोई वस्तु नहीं। लै, ये मेरी सदाँ के ताईं अंतिम बिदा की तुच्छ भेट! तू याकूँ अस्वीकार मत करियौं। या मुद्रिका कूँ देखि कैं कबहुँ मेरी याद करि लेऔ करियौं। बस, अब विशेष समय नहीं है, हृदय कूँ पत्थर करि लै। अब अपनी अंतिम बासना और सुनाय रही हूँ, वाकूँ धैर्य धरि कैं सुनि लै। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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