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श्रीरासपञ्चाध्यायी लीला
- सखियाँ-
- एवं चेत् तथापि तवैव दोषः। नहि तत्रभवतो भवतोऽसाधुसंग समुचितः।
- तौ हू आपकौ ही दोष है। क्योंकि ऐसी असाधु मुरली संग करिबे जोग्य नहीं है।
ठाकुरजी- हे गोपियौ! मेरी मुरली असाधु कैसैं हैं?
सखियाँ- हे प्यारे! वह तौ आपके बाक्यन सौं ही असाधु सिद्ध है गयी है।
(श्लोक)
- छिर्द्रर्युता बहुभिरेव कठोरगात्री शून्यान्तरातिमुखरा महती न वंशात्।
- जाता परस्य कुलपंकलंककर्त्री वंशी तवेयमिह नार्हति साधुवादम्।।
प्यारे! या बंसी में बहुत से छिद्र हैं, या के अंग कठोर हैं, अंतर ख़ाली है। यह बहुत बकबादी है। अच्छे कुल में उत्पन्न नायँ भई। पराये कुल कूँ ये दाग लगायबे वारी है, यासौं बंसी साधु कहिवे जोग्य नहीं।
पद (राग कान्हरौ)
- सुनहु स्याम! अब करौ चतुराई, क्यौं तुम बेनु बजाई बुलाईं।
- बिधि मरजाद, लोक की लज्जा, सबै त्यागि हम धाईं आईं।
- अब तुम कौं ऐसी न बूझियै, आस निरास करौ जनि साईं।
- सोइ कुलीन सोई बड़भागी, जो तुम सन्मुख रहत सदाईं।।
- ते धनि पुरुष नारि धनि तेई, पंकज चरन रहत दृढताई।
- सूरदास कहि कहा बखानै, यह निसि, यह अँग सुंदरताई।।
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