(श्लोक)
- नादः कदम्बविटपान्तरतो विसर्पन् को नाम कर्णपदवीमविशन्न जाने ।
अर्थ- ओह! यह कदंब बृच्छन सों जानें कैसी ध्वनि आई? यह मेरे कानन में प्रविष्ट है गई। हाय! कदाचित् या अमृत बरसायबेवारे के रूप कूँ देख लेंती।
सखी- अरी, बावरी सखी! यह तौं बंसी-धुनि हती ।
श्रीजी- तौ यह बंसी धुनि कौन की ही? चलि, वाकूँ देखें।
सखी- प्यारी जू! आप तौ न जानें कहा कहा कह रही हो! हमारी तौ समझ में कछू आवै नहीं है।
श्रीजी- हा! हा!! हा!!! सुनौंगी – सु – नौं-
(श्लोक)
- वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
- पटान्निष्क्रान्तोऽभूद्धृतशिखिशिखण्डो नवयुवा ।।
अर्थ- महामरकत-द्युति अंग ते सोभा झर रही ही, माथे पै मोरपंख सोभा दै रह्यौ हौ। नव-किसोर स्यामघन-
सखी- किसोरी! तुम ने सुपनौं तो नही देख्यौ?
श्रीजी- स्वप्न या जागरन, दिन अथवा रात्रि-यह मैं नहीं जान सकी। जानिबे की सक्ति कहाँ रही? वा स्याम ज्योति में सागर लहराय रह्यौ हौ; वह लहर मोहूँ कूँ बहाय लै गई। नाचती भई चंचल लहर में मैं हूँ चंचल है उठी, फिर जानिबे कौ समै ही कहाँ मिल्यौ।