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श्रीठाकुरजी क शयन-झाँकी
- उर बर पर अति छबि कि भीर कछु बरनि न जाई,
- जिहि अंतर जगमगत निरंतर कुँअर कन्हाई।
- सुंदर उदर उदार रोमावलि राजति भारी,
- हिय सरबर रस पूरि चली मनु उमगि पनारी।।
- ता रस की कुंडिका नाभि अस सोभित गहरी,
- त्रिबली ता महँ ललित भाँति मनु उपजति लहरी।
- गूढ़ जानु आजानु-बाहु मद-गज-गति लोलैं,
- गंगादिकनि पबित्र करत अवनी पर डोलैं।।
- जब दिनमनि श्रीकृष्न दृगनि तैं दूरि भये दूरि,
- पसरि पर्यौ अँधियार सकल संसार घुमड़ि घुरि।
- तिमिर-ग्रसित सब लोक ओक लखि दुखित दयाकर,
- प्रकट कियौ अद्भुत प्रभाउ भागवत बिभाकर,
- ताहू मैं पुनि अति रहस्य यह पंचाध्याई,
- तन मँह जैसैं पंच प्रान अस सुक मुनि गाई।
- परम रसिक इक मीत मोहिं तिन आग्या दीन्ही,
- तातें मैं यह कथा जथामति भाषा कीन्ही।।
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