ठाकुरजी- अहा, मदनराज! आपकौ स्वागत है, कहौ, कैसैं आयबो भयौ?
कामदेव- हे महाराज, मैंने सब देवतान कूँ जीत्यौ है, अब मेरी आपसूँ जुद्ध करिबे की इच्छा है।
ठाकुरजी- सो तौ ठीक है, भाई! परंतु जुद्ध दो प्रकार कौ होय है, तुम मोते कौन सौ जुद्ध करौगे?
कामदेव- कौन-कौन सौ महाराज!
ठाकुरजी- एक तौ किले कौ और दूसरौ मैदान कौ जुद्ध।
कामदेव- महाराज, नैक और स्पष्ट करौ।
ठाकुरजी- अरे भाई, किले कौ जुद्ध तौ ऐसैं होय कि मैं आसन लगाय कैं बैठजाऊँ, तब तुम बाण मारो। जदि मेरौ मन बिचलित होय, तब तौ तुम जीते और नहीं तौ मैं जीत्यौ और मैदान कौ जुद्ध ऐसैं होय है कि मैं सत कोटि गोपीन के साथ रास करूँगौ, वा समय तुम अपने बाण मारौ। जदि मेरौ मन बिचलित होय, तब तुम जीते; नहीं तौ मैं जीत्यौ।
कामदेव- हे प्रभो, किले के जुद्ध तौ मैंने बहुत किये हैं। हमारौ और आपकौ तो मैदान कौ ही जुद्ध होयगौ।
ठाकुरजी- अच्छौ, तो अब तौ तुम बृंदाबन में रहो। मैं गोपीन कूँ बुलाय कैं जब रास करूँ, तब पधारियौ।
- समाजी-
पद (राग देस, ताल-मूल)