श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीरास-लीलाप्रथम तौ श्रीमद्धगवद्भक्तन के मुखारविन्दु ते श्रद्धापूर्वक श्रीमद्भागवत स्रवण करै। श्रीमद्भागवत में कही भई नौ प्रकार की भक्तीन कौ सेवन करै-स्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, बंदन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन पर्यन्त नबधा भक्ति कौ अच्छी रीति सौं स्वाद लैकैं श्रीरास-रस के स्वादी अति चतुर श्रीगुरुमहाराज सौं महारास रस कौ स्वादकी लैबै जुक्ति पूछै। तदनन्तर बनस्थली एकान्त में निवास करि कैं श्रीजुगल किसोर को ध्यान करै। ध्यान करत में मैं स्त्री हूँ अथवा पुरुष हूँ- ऐसी भावना निवृत्त है जाय, अपने कूँ भूलि जाय; तब रास के दरसन कौ चिंतन कौ अधिकारी होय है। यासौं, पुत्र! अबही तौ तुम नवधा भक्ति कौ ही सेवन करौ। नहीं तो बिपरीत फल है जायगौ। आसुरिजी- हे स्वामिन्, कहा रास के देखिवे ते हू बिपरीत फल है जाय है? शंकरजी- हाँ, पुत्र, जो भक्तिमार्ग ते बहिर्मुख हैं अथवा भक्तिमार्ग में प्रवृत्त हू हैं, परंतु श्रीकृष्णचंद्र के प्रेम कूँ अलौकिक नहीं जानैं हैं, सो सब अनधिकारी हैं। यदि ऐसे पुरुष रास के दरसन करैं तो ये प्राकृत स्त्री पुरुषन की भाँति रास कौ जानैंगे। और सांसारिक विषयन में आसक्त भये अधोगति कूँ प्राप्त होयँगे, नरक कौं जायँगे। आसुरिजी- स्वामिन्! आप तौ बड़े कृपालु हैं और श्रीस्यामसुंदर के अनन्य प्रेमी हैं, सो आप ऐसी कृपा करौ कि मैं हू रास के दरसन कौ अधिकारी बनि जाऊँ। शंकरजी- हे पुत्र, तुम्हारे ऊपर श्रीस्यामसुंदर की अत्यंत ही कृपा है और तुम्हारे हृदय में प्रेम-भक्ति कौ संचार हू है गयौ है। अब महारास कौ समय हू भयौ है, सो अब शीघ्र चलो, सखीरूप धरि कैं रास के दरसन करैंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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