राणाँजी (हो) मैं साधुन रँगराती। (टेक)
काहू को पिया परदेस बसत है, लिख लिख भेजत पाती।
मेरो पिया मेरे माँहि बसत है, कहि न सकूँ सरमाती।।1।।
सूहो कसूँभी ओढ़ डुपट्टो, झुरमुट खेलन जाती।
झुरमुट खेल मिले यदुनन्दन, खोल मिली मिल छाती।।2।।
और सखी मद पीवन आईं, मैं मद की मदमाती।
मैं मद पीयो पंचबटी को, छकी रहूँ दिन राती।।3।।
सुन्न सिखर के द्वारे आकै, मोहि मिले अविनासी।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, जनम-जनम की दासी।।4।।[1]
राग - भैरों वा सोरठ : ताल - धीमा तिताला
(भक्ति-दृढ़ता-रहस्य)