राखूँ उर-मंदिर बाँधि प्रेम की डोरी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा के प्रेमोद्गार-श्रीकृष्ण के प्रति

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लावनी दूसरी तर्ज - ताल कहरवा


राखूँ उर-मंदिर बाँधि प्रेम की डोरी।
खेलूँ प्रिय! तुम सँग सदा रंग-रस-होरी॥
तुम बनौ नित्य मम हृदय-सरोज-विहारी॥-मो दृग०॥
तुम बने रहो हरि! हार गले का सोभन।
नित प्रेम-रसास्वादन का बढ़ै प्रलोभन॥
तुम-हम, बस, दो ही रहैं, न को‌ई दूजा।
मैं करती रहूँ प्रान-धन नित रस-पूजा॥
त्रुटिभर न तुम्हें मैं बिलग करूँ हियहारी॥-मो दृग०॥
मम मुख-पंकज के मधुकर मधुर पि‌आरे।
तुम प्रान-प्रान, मेरे नैनों के तारे॥
छूटै अग-जग की सुरति देखि तव मूरति।
मुक्ती न पाय मो कूँ नित रहै बिसूरति॥
तुम में मैं घुल-मिल जऊँ, रहूँ न न्यारी॥-मो दृग०॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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