राखि लेहु अब नंद-कुमार। गोसुत गाइ फिरत बिकरार।।
बरषत बूंद लगै जनु सायक। राखि लेहु ब्रज गोकुल-नायक।।
तुम बिन कौन सहाइ हमारैं। नंद-सुवन अब सरन तुम्हारैं।।
सरन-सरन जब ब्रज-जन बोले। धीर-वचन दै लै दुख मोले।।
यह बोले हँसि कृष्न मुरारी। गिरि कर धरि राखौं नर मारी।।
सूर स्याम चितए गिरिवर तन। बिकल देखि गो, गोसुत, ब्रजजन।।937।।