रही री लाज नहिं काज आजु हरि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गंधारी


रही री लाज नहिं काज आजु हरि, पाए पकरन चोरी।
मूसि मूसि ले गए मनमाखन, जो मेरै धन हो री।।
बाँधौ कंचनखंभ कलेवर, उभय भुजा दृढ़ डोरी।
चाँपौ कठिन कुलिस कुच अंतर, सकै कौन धौं छोरी।।
खंडी अधर भूलि रसगोरस हरै न काहु कौ री।
दंडी कामदंड परघर कौ नाउँ न लेई बहोरी।।
तब कुलकानि, आनि भई तिरछी छमि अपराध किसोरी।
सिव पर पानि धराइ 'सूर', उर सकुच मोचि, सिर ढोरी।।1938।।

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