रज गुण

सांख्य दर्शन में सत्त्व, रज और तम- ये तीन गुण बताये गये हैं। इनमें रजस् मध्यम स्वभाव है, जिसके प्रधान होने पर व्यक्ति यथार्थ जानता तो है पर लौकिक सुखों की इच्छा के कारण उपयुक्त समय उपयुक्त कार्य नहीं कर पाता है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट रूप से इस गुण का वर्णन किया है-

  • रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जानना चाहिए।[1] वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है।[2]
  • कृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृति, स्वार्थ-बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं।[3]


टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. कामना और आसक्ति से रजोगुण बढ़ता है तथा रजोगुण से कामना और आसक्ति बढ़ती है। इसका परस्पर बीज और वृक्ष की भाँति अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है इसमें रजोगुण बीजस्थानीय और कामना, आसक्ति आदि वृक्ष स्थानीय हैं। बीज वृक्ष से ही उत्पन्न होता है, तथापि वृक्ष का कारण भी बीज ही है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये कहीं रजोगुण से कामादि की उत्पत्ति और कहीं कामनादि से रजोगुण की उत्पत्ति बतलायी गयी है।
  2. ‘इन सब कर्मों को मैं करता हूं’ कर्मों में कर्तापन के इस अभिमानपूर्वक ‘मुझे इसका अमुक फल मिलेगा’ ऐसा मानकर कर्मों के और उनके फलों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेने का नाम ‘कर्मसंग’ है; इसके द्वारा रजोगुण जो इस जीवात्मा को जन्म-मृत्यु संसार में फँसाये रखना है, वही उसका कर्म संग के द्वारा जीवात्मा बांधना है।
  3. जिसके कारण मनुष्य प्रतिक्षण धन की वृद्धि के उपाय सोचता रहता है, धन व्यय करने का समुचित अवसर प्राप्त होने पर भी उसका त्याग नहीं करता एवं धनोपार्जन के समय कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन छोडकर दूसरे के स्वत्व पर भी अधिकार जमाने की इच्छा या चेष्टा करने लगता है, उस धन की लालसा का नाम ‘लोभ’ है। नाना प्रकार के कर्म करने के लिये मानसिक भावों का जाग्रत होना ‘प्रवृति’ है। उन कर्मों को सकामभाव से करने लगना उनका ‘आरम्भ’ है। मन की चंचलता का नाम ‘अशांति’ है, और किसी भी प्रकार के सांसारिक पदार्थों को अपने लिये आवश्यक मानना ‘स्पृहा’ है। रजोगुण की वृद्धि के समय इन लोभ आदि भावों का प्रादुर्भाव होना ही उनका उत्पन्न हो जाना है।

सम्बंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः