रच्यौ रास रंग स्याम सबहिन सुख दीन्हौ।
मुरली-सुर करि प्रकास, खग-मृग सुनि रस-उदास, जुवतिनि तजि गेह बास, वनहिं गवन कीन्हौ।।
मोहे सुर-असुर-नाग, मुनिजन-गन भए जाग, सिव सारद नारदादि चकित भए ज्ञानी।।
अमरवि सह अमर-नारि, आई लोकनि बिसारि, ओक ओक त्यागि, कहतिं धन्य-धन्य बानी।।
थकित-गति भयौ समीर, चंद्रमा भयौ अधीर, तारागन लज्जित भए, मारग नहिं पावैं।।
उलटि बहति जमुन-धार, विपरित सबही बिचार, सूरज-प्रभु संग नारि, कौतुक उपजावैं।।1154।।