रचि रस रास स्याम सुजान -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ


रचि रस-रास स्याम सुजान।
प्रथम मुरली-नाद करि, हरि हरयौ सबकौ ज्ञान।।
सबनि उलटी रीति कीन्हौ, देव-सुर-नर आदि।
ब्रज बधू मन-काम पूरन, कियौ पुरुष अनादि।।
सहज मुख निसि ग्वाल सोवत, सौ रची षट् मास।
हेतु जुवती सुख-बढ़ावन, कियौ पूरन रास।।
मेटि अंतर ध्यान कौ दुख, वहै राख्यौ भाव।
सूर प्रभु महिमा अगोचर, निगम अंत न पाव।।1155।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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