रचि रस-रास स्याम सुजान।
प्रथम मुरली-नाद करि, हरि हरयौ सबकौ ज्ञान।।
सबनि उलटी रीति कीन्हौ, देव-सुर-नर आदि।
ब्रज बधू मन-काम पूरन, कियौ पुरुष अनादि।।
सहज मुख निसि ग्वाल सोवत, सौ रची षट् मास।
हेतु जुवती सुख-बढ़ावन, कियौ पूरन रास।।
मेटि अंतर ध्यान कौ दुख, वहै राख्यौ भाव।
सूर प्रभु महिमा अगोचर, निगम अंत न पाव।।1155।।