रघुपति कहि प्रिय नाम पुकारत।
हाय धनुष लीन्हे, कटि भाथा, चकित भए दिसि बिदिस-निहारत।
निरखत सून भवन जड़ ह्वै रहे, खिन लोटत घर, बपु न सँभारत।
हा सीता, सीता, कहि सियपति, उमड़ि नयन जल भरि-भरि ढारत।
लगत सेष-उर बिलखि जगत, गुरु, अद्भुत गति नहिं परित बिचारत।
चिंतत चित्त सूर सीतापति, मोह-मेरु-दुख टरत न टारत॥62॥