रघुपति अपनौ प्रन प्रतिपारयौ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

Prev.png
राग मारू


 
रघुपति अपनौ प्रन प्रतिपारयौ।
तोरयौ कोपि प्रबल गढ़, रावन टूक-टूक करि डारयौ।
कहुँ भुज, कहुँ घर, कहुँ सिर लोटत, मनौ मद-मतवारौ।
भभकत, तरफत स्त्रोपनित मैं तन, नाहीं परत निहारौ।
छोरे और सकल सुख-सागर, बाँधि उदधि जल खारौ।
सुर-नर-मुनि सब सुजस बखानत, दुष्टा दसानन मारौ।
डरपत बरून-कुबेर-इंद्र-जम, महा सुमट न धारौ।
रह्यौ मास कौ पिंड, प्रान लै गयौ वान अनियारौ।
नव ग्रह परे रहैं पाटी-तर, कूपहिं काल उसारौ।
सी रावन रघुनाथ छिनक मैं कियौ गीध को चारौ!
सिर सँभारि लै गयौ उमापति, रह्यौ रूधिर कौ गारी।
दियौ बिभीषन राज सूर प्रभु, कियौ सुरनि निस्तारौ॥159॥

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः