रघुपति, मन संदेह न कीजै।
मो देखत लछिमन क्यौं मरिहैं, मोकौं आज्ञा दीजै।
कहौ तौ सूरज उगन देउँ नहिं, दिसि-दिसि बाढ़ँ ताम।
कही तौ गन समेत ग्रसि खाऊँ, जमपुर जाइ न, राम।
कहौ तौ कालहिं खंड-खंड करि टूक-टूक करि काटौं।
कहौ तौ मृत्युहिं मारि डारि कै, खोदि पतालहिं पाटौं।
कहौ तौ चंद्रहिं लै अकास तै, लछिमन मुखहिं निचोरौ।
कहौ तौ पैठि सुधा कैं सागर, जल समस्त मैं घोरौं।
श्रीरघुबर, मोसौं जन जाकैं, ताहि कहा सँकराई?
सूरदास मिथ्या, नहिं भापत, मोहिं रघुनाथ-दुहाई॥148॥