रघुनाथदास
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पूरा नाम | रघुनाथदास |
जन्म भूमि | सप्तग्राम नामक नगर, तीस बीघा के पास, बंगाल |
अभिभावक | पिता- गोवर्धनदास |
कर्म भूमि | भारत |
भाषा | संस्कृत |
प्रसिद्धि | भक्त |
अन्य जानकारी | रघुनाथदास श्री चैतन्य चरितामृत के लेखक श्री कृष्णदास कविराज के दीक्षागुरु थे। इन्होंने युवा आयु में ही गृहस्थी का त्याग किया और गौरांग के साथ हो लिए थे। रघुनाथदास ने गौरांग के पृथ्वी पर अंतिम दिनों में दर्शन भी किये थे। गौरांग के देहत्याग के उपरांत ये वृन्दावन चले आए थे। वृन्दावन में रहते समय इन्होंने संस्कृत में कई ग्रन्थ भी बनाये थे। |
रघुनाथदास चैतन्य महाप्रभु के छ: प्रमुख अनुयायी भक्तों में से एक थे। श्री चैतन्य चरितामृत के लेखक श्री कृष्णदास कविराज के ये दीक्षागुरु थे। इन्होंने युवा आयु में ही गृहस्थी का त्याग किया और गौरांग के साथ हो लिए थे। चैतन्यदेव ने स्वरूपदामोदर को अपने पास बुलाकर रघुनाथदास को सौंपा था, ये कुछ दिन इनके साथ भी रहे। इन्होंने गौरांग के पृथ्वी पर अंतिम दिनों में दर्शन भी किये थे। गौरांग के देहत्याग के उपरांत ये वृन्दावन चले आए थे। इनको संस्कृत-भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। वृन्दावन में रहते समय इन्होंने संस्कृत में कई ग्रन्थ भी बनाये थे।
विषय सूची
परिचय
बंगाल में तीस बीघा के पास पहले एक सप्तग्राम नामक महासमृद्धि शाली प्रसिद्ध नगर था। इस नगर में हिरण्यदास और गोवर्धनदास- ये दो प्रसिद्ध धनी महाजन रहते थे। दोनों भाई-भाई ही थे। ये लोग गौड़ के तत्कालीन अधिपति सैयद हुसैनशाह का ठेके पर लगान वसूल किया करते थे और ऐसा करने में बारह लाख रुपया सरकारी लगान भर देने के बाद आठ लाख रुपया इनके पास बच जाता था। आठ लाख वार्षिक आय कम नहीं होती और वह भी उन दिनों ! खैर, कहने का मतलब यह कि ऐसे सम्पन्न घर में रघुनाथदास का जन्म हुआ था। हिरण्यदास सन्तानहीन थे और गोवर्धनदास के भी रघुनाथदास को छोड़कर और कोई सन्तान न थी। इस तरह दोनों भाइयों की आशा के स्थल एकमात्र यही थे।
खायें तो थोड़ा, पीयें तो थोड़ा और उड़ायें तो थोड़ा- इस तरह बड़े लाड़-दुलार के साथ बालक रघुनाथदास का लालन-पालन हुआ। अच्छे-से-अच्छे विद्वान पढ़ाने को रखे गये। बालक रघुनाथ ने बड़े चाव से संस्कृत पढ़ना आरम्भ कर दिया और थोड़े ही समय में उसने संस्कृत में पूर्ण अभिज्ञता प्राप्त कर ली। यही नहीं, भाषा की शिक्षा के साथ-साथ रघुनाथ को उस संजीवनी बूटी का भी स्वाद मिल गया, जिसके संयोग से विद्या वास्तविक विद्या बनती है। यह संजीवनी बूटी है- भगवान की भक्ति। बात यह हुई कि अपने जिन कुलपुरोहित श्री बलराम आचार्य के यहाँ बालक रघुनाथ विद्याभ्यास के लिये जाता था, उनके यहाँ उन दिनों श्री चैतन्य महाप्रभु के परमप्रिय शिष्य श्री हरिदास जी रहा करते थे। उनके सत्संग से हरि भक्ति की एक पतली-सी धार उसके हृदय में भी बह निकली।[1]
शान्तिपुर गमन
उन्हीं दिनों खबर मिली कि श्री चैतन्यदेव शान्तिपुर श्री अद्वैताचार्य के घर पधारे हुए हैं। ज्यों ही यह समाचार मिला त्यों ही आसपास के भक्तों का दिल खिल उठा। रघुनाथ तो खबर पाते ही दर्शन के लिये छटपटा उठा। उसने शान्तिपुर जाने के लिये पिता से आज्ञा माँगी। पिता के लिये यह एक अनावश्यक-सा प्रस्ताव था; पर जब उन्होंने देखा कि रघुनाथ के चेहरे पर बेचैनी दौड़ रही है, तब उन्होंने उसे रोकना ठीक नहीं समझा और उसे एक राजकुमार की भाँति बढ़िया पालकी में बैठाकर, नौकर-चाकरों के दल के साथ शान्तिपुर भेज दिया। शान्तिपुर में रघुनाथदास सीधा श्री अद्वैताचार्य के घर पहुँचा। जाकर भेंट की वस्तुओं के सहित गौर के चरणों में लोट-पोट हो गया। गौर इसे देखते ही ताड़ गये कि इसका भविष्य क्या है। फिर भी उन्होंने अनासक्त भाव से घर-गृहस्थी में रहते हुए भी भगवत्प्राप्ति की जा सकती है, आदि उपदेश देकर आशीर्वाद सहित घर के लिये वापस किया। रघुनाथ घर वापस आ रहा था; पर उसे यह ऐसा कठिन मालूम पड़ रहा था जैसा नदी में प्रवाह के विपरीत तैरना।
पुन: गृह आगमन
अस्तु, किसी तरह हृदय की उथल-पुथल के साथ वह घर आया और माता, पिता तथा ताऊ के चरणों में प्रणाम किया; पर उन्होंने देखा कि उसके चेहरे का रंग ही बदला हुआ है। घरवालों को पछतावा हुआ कि इसे गौरांग के पास क्यों जाने दिया। खैर, जो हुआ सो हुआ; अब ऐसी गलती नहीं करनी चाहिये- ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने लड़के पर चौकी-पहरा बैठा दिया। शायद विवाह हो जाने से मेरे बेटे का चित्त स्थिर हो जाय- इस खयाल से श्री गोवर्धनदास मजूमदार ने झटपट व्यवस्था करके एक अत्यन्त रूपवती बालिका के साथ अपने पुत्र का विवाह कर दिया। परंतु पीछे उनका खयाल गलत साबित हुआ। वह बार-बार घर से निकल भागने का प्रयत्न करता और पहरेदार पकड़कर लौटा लाते। धीरे-धीरे यह मामला इतना अधिक बढ़ा कि स्वजनों की सलाह से माता-पिता ने रघुनाथ को पागल की तरह रस्सी से बँधवा दिया। परंतु पीछे विवेक ने उन्हें समझाया कि बहुत कड़ा करके बाँधा हुआ बंधन जब टूटता है, तब बात-की-बात में टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। इस पर रघुनाथ को पागल की तरह बाँधने का पागलपन उन्होंने त्याग दिया। हाँ, नजर की चौकसी उन्होंने पूर्ववत जारी रखी।
पुरी यात्रा
एक दिन भगवत्प्रेरित महामाया ने एक साथ सारे-के-सारे ड्योढ़ीदारों को निद्रा में डाल दिया और सबेरा होते-न-होते रघुनाथ महल की चहारदीवारी से निकलकर नौ-दो-ग्यारह हो गये। इधर ज्यों ही मालूम हुआ कि रघुनाथ नहीं हैं तो सारे महल में सनसनी फैल गयी। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण- सभी दिशाओं को आदमी दौड़ पड़े; पर वहाँ मिलने को अब रघुनाथ की छाँह भी नहीं थी। अनुमान किया गया कि कहीं पुरी न गया हो। उन्होंने पाँच घुड़सवारों को पुरी के रास्ते पर दौड़ा दिया; पर वहाँ रघुनाथदास कहाँ थे? भगवान ने उन्हें यह बुद्धि दी कि आम सड़क होकर जाना ठीक नहीं। अनेक यात्रियों से भेंट होगी। पूछेंगे- कौन हो, कहाँ से आये? उन्हें क्या उत्तर दूँगा। बतलाने से भेद खुलता है और उन यात्रियों में क्या मालूम कोई जान-पहचान का ही निकल आये और मेरे लिये खुफिया पुलिस का कर्मचारी बन बैठे! सीधे ऊटपटाँग जंगल के रास्ते से जाना अच्छा है। इसलिए वे पगडंडी के रास्ते से गये और रात हाते-होते प्राय: तीस मील पर जा पहुँचे। इधर यात्रियों का संग लेने के बाद गोवर्धनदास के आदमियों को जब शिवानन्द से मालूम हुआ कि रघुनाथ उनके साथ नहीं आये, तब हताश होकर वे लौट आये। सारे महल में कुहराम मच गया। हितू-मित्र-सभी आँसू बहाकर समवेदना प्रकट करते और समझाते कि सबका रक्षक एकमात्र ईश्वर है, इसलिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये; पर उन्हें ढाँढ़स न होता।
चैतन्यदेव से भेंट
पुरी की यात्रा के दौरान इनके मन में श्री चैतन्यदेव के दर्शन कि इच्छा हुई। भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद रघुनाथदास श्रीचरणों की ओर अग्रसर हुए। इनके हृदय में न जाने क्या-क्या तरंगें उठ रही थीं। इसी प्रकार भावुकता के प्रवाह में अलौकिक आनन्द लाभ करते हुए ये निश्चित स्थान के निकट जा पहुँचे। दूर से ही इन्होंने देखा कि भक्त जनों से घिरे हुए श्री चैतन्यदेव प्रमुख आसन पर विराजमान हैं। उस अलौकिक शोभा से युक्त मूर्ति का दर्शन करते ही रघुनाथ का रोम-रोम खिल उठा। हर्षातिरेक से उन्हें तन-वदन की भी सुधि न रही। रघुनाथदास श्री चरणों के निकट पहुँच गये। सबसे पहले मुकुन्द दत्त की निगाह उन पर पड़ी। देखते ही उन्होंने कहा- "अच्छा, रघुनाथदास, आ गये?" तुरंत ही गौर का भी ध्यान गया। वे प्रसन्नता से खिल उठे। ‘अच्छा, वत्स रघुनाथ! आ गये?' कहकर उनका स्वागत किया और उनके प्रणाम करने के बाद झट से अत्यन्त प्रेमपूर्वक उन्हें उठाकर गले लगाया। पास बैठाकर उनके सिर पर हाथ फेरना शुरु किया। रघुनाथ को ऐसा मालूम पड़ा मानो उनकी रास्ते की सारी थकावट हवा हो गयी। महाप्रभु की करुणा-शीलता देखकर उनकी आँखों से श्रद्धा और प्रेम के आँसू बरस पड़े। उन्हें भी गौर ने निज करकमलों से ही पोंछा।
- रघुनाथदास को संस्कृत-भाषा का ज्ञान भी बहुत अच्छा था। वृन्दावन में रहते समय इन्होंने संस्कृत में कई ग्रन्थ भी बनाये थे। श्री चैतन्य चरितामृत के लेखक श्री कृष्णदास कविराज के ये दीक्षागुरु थे। अपने ग्रन्थ के लिये बहुत कुछ मसाला उन्हें इन्हीं महापुरुष से प्राप्त हुआ था।
- रघुनाथदास पचासी वर्ष तक पूर्ण वैराग्यमय जीवन बिताकर भगवद्भजन करते हुए अन्त में भगवच्चरणों में जा विराजे।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 573
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