रघुनाथदास की पुरी यात्रा

रघुनाथदास को नित्यानन्द प्रभु के दर्शन

गौड़ देश में गौरांग के बाद यदि किसी महापुरुष के नाम की धूम थी तो वह थी श्री नित्यानन्द के नाम की। संन्‍यासी होकर अनेक देश-देशान्‍तरों में परिभ्रमण करने के बाद श्री नित्‍यानन्‍द महाराज श्री गौरांग के शरणापन्न हुए थे और उन्‍हीं की आज्ञा से वे गौड़-प्रदेश में हरिनाम का प्रचार कर रहे थे। उन्‍होंने पानीहाटी ग्राम को हरिनाम प्रचार का प्रधान केन्‍द्र बना रखा था। रघुनाथदास की भी इच्‍छा यह आनन्‍द लूटने की हुई। पिता ने भी रोक नहीं लगायी। उन्‍होंने भी अब ‘रस्‍सा ढील’ नीति से काम लेना आरम्‍भ कर दिया- यानी जैसे बिगड़े हुए घोड़े की रस्‍सी के सिर्फ छोर को मजबूती से पकड़े रहकर ‘जायगा कहाँ, रस्‍सी का छोर तो हाथ में है’ यह सोचकर रस्‍सी को बिल्‍कुल ढीला करके जी भरकर उछलने-कूदने के लिये उसे स्‍वतन्‍त्र कर दिया जाता है, वैसे ही गोवर्धनदास ने रघुनाथदास पर निगाह रखने वालों को तो और अधिक सावधानी के साथ काम करने का आदेश कर दिया था, पर ऊपर से स्‍पष्‍ट दिखलायी देने वाला बन्‍धन हटा लिया था। इसीलिये बड़ी खुशी के साथ रघुनाथदास को पानीहाटी जाने की अनुमति मिल गयी। रघुनाथदास पानीहाटी गये, श्री नित्‍यानन्‍द के दर्शन से अपने नेत्रों को सुख पहुँचाया और हरिनाम संकीर्तन की ध्‍वनि से अपने कर्ण विवरों को पावन किया। यही नहीं, श्री नित्‍यानन्‍द की दया से इन्‍हें समवेत असंख्‍य वैष्णव जनों को दही-चिउरे का महाप्रसाद चढ़ाने का भी सुअवसर प्राप्‍त हो गया। दूसरे दिन बहुत-सा दान-पुण्‍य करके श्री नित्‍यानन्‍द जी से आज्ञा लेकर घर को आ गये। घर आ गये- पर शरीर से, मन से नहीं।[1]

घर से पलायन

कीर्तन-समारोह में सम्मिलित होकर तो अब वे बिल्‍कुल ही बेकाबू हो गये। इधर इन्‍होंने यह भी सुन रखा था कि गौड़ देश के सैकड़ों भक्त चातुर्मास्‍यभर श्री चैतन्‍य चरणों में निवास करने को नीलाचल जा रहे हैं; इस स्‍वर्ण संयोग को वे किसी तरह हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे। एक दिन भगवत्‍प्रेरित महामाया ने एक साथ सारे-के-सारे ड्योढ़ीदारों को निद्रा में डाल दिया और सबेरा होते-न-होते रघुनाथ महल की चहारदीवारी से निकलकर नौ-दो-ग्‍यारह हो गये। इधर ज्‍यों ही मालूम हुआ कि रघुनाथ नहीं हैं तो सारे महल में सनसनी फैल गयी। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण- सभी दिशाओं को आदमी दौड़ पड़े; पर वहाँ मिलने को अब रघुनाथ की छाँह भी नहीं थी। अनुमान किया गया कि कहीं पुरी न गया हो। उन्‍होंने पाँच घुड़सवारों को पुरी के रास्‍ते पर दौड़ा दिया; पर वहाँ रघुनाथदास कहाँ थे? भगवान ने उन्‍हें यह बुद्धि दी कि आम सड़क होकर जाना ठीक नहीं। अनेक यात्रियों से भेंट होगी। पूछेंगे- कौन हो, कहाँ से आये? उन्‍हें क्‍या उत्तर दूँगा। बतलाने से भेद खुलता है और उन यात्रियों में क्‍या मालूम कोई जान-पहचान का ही निकल आये और मेरे लिये खुफिया पुलिस का कर्मचारी बन बैठे! सीधे ऊटपटाँग जंगल के रास्‍ते से जाना अच्छा है। इसलिए वे पगडंडी के रास्ते से गये और रात हाते-होते प्राय: तीस मील पर जा पहुँचे। इधर यात्रियों का संग लेने के बाद गोवर्धनदास के आदमियों को जब शिवानन्‍द से मालूम हुआ कि रघुनाथ उनके साथ नहीं आये, तब हताश होकर वे लौट आये। सारे महल में कुहराम मच गया। हितू-मित्र-सभी आँसू बहाकर समवेदना प्रकट करते और समझाते कि सबका रक्षक एकमात्र ईश्‍वर है, इसलिये चिन्‍ता नहीं करनी चाहिये; पर उन्‍हें ढाँढ़स न होता।

एक राजकुमार, जो कभी एक पग भी बिना सवारी के न चलता था, वह आज बड़े-बड़े विकट बटोहियों के भी कान काट गया। उत्‍कट वैरागी रघुनाथ को प्रथम दिन की यात्रा समाप्‍त करने के बाद एक ग्‍वाले के घर में बसेरा मिला और उसके दिये हुए थोड़े-से दूध पर बसर करके दूसरे दिन बिलकुल तड़के फिर कूच कर दिया और इस तरह लंबी चलाई करके क़रीब एक महीने का रास्‍ता रघुनाथ ने कुल बारह दिनों में तै कर डाला और इन बारह दिनों में उन्‍होंने कुल तीन बार रसोई बनाकर अपने उदरकुण्‍ड में आहुति दी। इस प्रकार प्रभुसेवित नीलाचल पुरी के दर्शन होते ही इन्‍होंने उसे नमस्‍कार किया।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 573

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