योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
बाईसवाँ अध्याय
कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म
"इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य है कि अपनी मनोकामना की सिद्धि के लिए जो कुछ हो सकता है उसे वह करे। साथ ही उसका यह भी धर्म है कि वह केवल अपनी युक्तियों पर ही निर्भर न रहे, वरन् जो कुछ करता है उसे भगवान के अधीन समझकर करे ताकि परमात्मा उसकी युक्तियों में उसे सफल करे। कृषिकार अपने खेत में हल चलाता है, बीज बोता है, उसे पानी से सींचता है, परन्तु जल बरसाना उसके कर्म से बाहर है। यह कर्म परमेश्वर के अधीन है। इसलिए जो काम हम करें उसे परमेश्वर के अधीन होकर करें, साथ ही परमात्मा पर विश्वास रखें कि यदि उसकी कृपा होगी तो वह हमारी मनोकामना को अवश्य पूर्ण करेगा।" अब कृष्ण युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन से विदा होकर नकुल और सहदेव से मिलने आये। नकुल ने तो यही कहा कि जैसी आपकी अच्छा हो वैसा ही कीजिएगा, परन्तु सहदेव ने हाथ जोड़कर कहा, "मेरी आन्तरिक इच्छा तो यही है कि हमारे हाथों दुर्योधन का नाश हो। आप ऐसी कार्रवाई करें जिससे लड़ाई अवश्य हो।" सहदेव का यह कहना था कि सभा में चारों ओर से 'युद्ध-युद्ध' की ध्वनि गूँज उठी। सात्यकि ने कहा कि हमको चैन तब ही आएगा जब हम दुर्योधन का सिर अपने हाथ से कुचलेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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