योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ
जब हम तीनों उसके पास जायेंगे तो यह अनिवार्य होगा कि वह हममें से किसी एक से लड़े। वरन् उसके अभिमान का विचार कर कहना पड़ता है कि वह भीम से ही लड़ने को तैयार होगा। बस फिर क्या है, जिस तरह मृत्यु दंभी पुरुष का विनाश कर देती है उसी तरह भीमसेन जरासंध का वध कर डालेगा। यदि आप मेरे भीतर की बात पूछते हैं या आपको मुझमें कुछ भी श्रद्धा है तो आप अब तनिक भी देर मत कीजिए और अर्जुन और भीम को मेरे साथ कर दीजिए। युधिष्ठिर इस उचित परामर्श को कैसे ठुकराता। कृष्ण की अन्तिम अपील ने युधिष्ठिर को पिघला दिया और उन्होंने नम्रतापूर्वक कृष्ण का हाथ चूमा और गद्गद होकर कहने लगे, "किसकी सामर्थ्य है जो कृष्ण और अर्जुन का सामना कर सके, पुनः जब भीम उनके साथ है। प्रत्येक चढ़ाई की सफलता सेनापति की बुद्धिमत्ता पर निर्भर होती है। जिस सेना का आधिपत्य कृष्ण के हाथ में हो, उसकी सफलता में क्या संदेह है? इसलिए अर्जुन! तुम्हें उचित है कि तुम कृष्ण में श्रद्धा रखकर उनको अपना नेता मानो और भीम को भी चाहिए कि वे अर्जुन के तेज को अपना अग्रगामी बनाये।" जहाँ नीति, तेज और शूरता ये तीन गुण एकत्र हो जाते हैं, वहाँ सफलता हाथ जोड़कर खड़ी रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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