योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ
फिर कृष्ण बाले, "अर्जुन ने ठीक वही कहा है, जो एक भरत सन्तान और कुन्तीपुत्र को कहना चाहिए। यह जीवन स्वप्नवत है। इसका भरोसा नहीं कि किस समय मृत्यु आ घेरे। हमने यह भी नहीं सुना है कि लड़ाई से अलग रहने से जीवात्मा को अमरत्व प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रत्येक मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि शास्त्रों के अनुसार अपने शत्रु पर चढ़ाई करे क्योंकि इसी से उसे शांति मिलती है। जो पुरुष बुद्धिमानी से काम करता है उसको[1] निश्चय ही सफलता मिलती है। यदि दोनों के कर्म अच्छे हैं और दोनों विचार कर चलते हैं तब भी एक की जीत होगी और दूसरे की हार। परन्तु जो बिना विचारे चलेगा वह अवश्य हारेगा और यदि दोनों मूर्ख हैं तब भी आवश्यक है कि एक सफल हो, क्योंकि दोनों जीत नहीं सकते। इसलिए हम क्यों न बुद्धिमानी से शत्रु पर चढ़ाई करें। जल का वेग बड़े-बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ देता है। जरासंध के वीर और प्रतापी होने में कुछ सन्देह नहीं, पर क्या डर है? यदि हम भी अपने संबंधियों के लिए उससे युद्ध ठानें, या तो हम युद्ध में उसे मारेंगे या स्वयं लड़ाई में मर सीधे स्वर्ग का रास्ता लेंगे।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यदि उसके पिछले कर्म खोटे नहीं हैं।
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