योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 81

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ


यह सुनकर अर्जुन बोला, "हे राजन! क्षत्रिय का धर्म है कि वह अपने बाहुबल से शत्रुओं का हनन करे तथा सदा अपना यश और अपना प्रसार बढ़ाता रहे। क्षत्रिय के गुणों में शूरता सबसे बढ़कर है। वीरों के कुल में जन्म लेकर जो कायर हुआ, वह घृणा के योग्य है। विद्वानों के समीप मनुष्य के लिए कुलीन वंशज होना यद्यपि सबसे बढ़कर है परन्तु यदि कोई वीर ऐसे वंश में जन्म ले, जिसे वीरों के जन्म देने का पहले सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था तो समझना चाहिए कि वह उससे भी बढ़कर है, जिसने वीरों के वंश में जन्म लिया है। वीर सदा अपने शत्रु पर जय पाता है। परन्तु जो पुरुष वीरता के भरोसे असावधानी से काम करता है वह सदा सफल नहीं होता। इसी से वीर या बलवान पुरुष कभी-कभी बलहीन के हाथों मारे जाते हैं। जैसे बलहीन पुरुष नीचता का शिकार हो जाता है, उसी तरह कभी-कभी बलवान अपनी मूर्खता से मारा जाता है। इसलिए जो राजा विजयी होने की इच्छा रखे, उसे इन दोनों बातों से बचना चाहिए। इसलिए हे राजन! यदि हम राजसूय यज्ञ करने के लिए जरासंध का वध करें और उसके बन्दियों को छुटकारा दें, तो इससे अच्छा दूसरा काम और क्या हो सकता है। पर भय से यदि हम इस काम से भागें तो इससे हमारी मूर्खता और कायरता ही सिद्ध होगी और लोग हमें कायर कहेंगे। इसलिए हे राजन! आप लोगों को हमारे उपहास का अवसर न दें।"

फिर कृष्ण बाले, "अर्जुन ने ठीक वही कहा है, जो एक भरत सन्तान और कुन्तीपुत्र को कहना चाहिए। यह जीवन स्वप्नवत है। इसका भरोसा नहीं कि किस समय मृत्यु आ घेरे। हमने यह भी नहीं सुना है कि लड़ाई से अलग रहने से जीवात्मा को अमरत्व प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रत्येक मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि शास्त्रों के अनुसार अपने शत्रु पर चढ़ाई करे क्योंकि इसी से उसे शांति मिलती है। जो पुरुष बुद्धिमानी से काम करता है उसको[1] निश्चय ही सफलता मिलती है। यदि दोनों के कर्म अच्छे हैं और दोनों विचार कर चलते हैं तब भी एक की जीत होगी और दूसरे की हार। परन्तु जो बिना विचारे चलेगा वह अवश्य हारेगा और यदि दोनों मूर्ख हैं तब भी आवश्यक है कि एक सफल हो, क्योंकि दोनों जीत नहीं सकते। इसलिए हम क्यों न बुद्धिमानी से शत्रु पर चढ़ाई करें। जल का वेग बड़े-बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ देता है। जरासंध के वीर और प्रतापी होने में कुछ सन्देह नहीं, पर क्या डर है? यदि हम भी अपने संबंधियों के लिए उससे युद्ध ठानें, या तो हम युद्ध में उसे मारेंगे या स्वयं लड़ाई में मर सीधे स्वर्ग का रास्ता लेंगे।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदि उसके पिछले कर्म खोटे नहीं हैं।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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