योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ
भीम के इस कथन को सुनकर कृष्ण बोले, "अल्पबुद्धि या विचारहीन मनुष्य बिना परिणाम को विचारे अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने में लग जाते हैं, पर फिर भी कोई शत्रु इसे स्वेच्छाचार या अल्पबुद्धि के कारण उस पर दया नहीं करता। इसलिए कोई काम बिना विचारे नहीं करना चाहिए। इससे पहले कृतयुग में पाँच महाराजाओं ने अपने-अपने गुणों से चक्रवर्ती राजा की उपाधि पाई। किसी ने कर छोड़ देने से, किसी ने दया और न्याय से प्रजा को वश में करने से, किसी ने अपने तपोबल से और किसी ने अपने बाहुबल से। परन्तु तुम एक गुण से नहीं, वरन् इन सब गुणों से चक्रवर्ती राजा कहलाने के अधिकारी हो। तू बड़भागी और प्रतापी है जो अपनी प्रजा की हर तरह से रक्षा करता है। तू क्षमाशील और बुद्धिमान भी है। पर दूसरा राजा जरासंध भी इस उपाधि का दावेदार बना है। उसके बल की थाह इसी से लग जाती है कि उसने क्षत्रियों के 100 कुलों को पराजित किया है और कोई उसका सामना नहीं कर सका। वह अत्यन्त अभिमानी है। जो राजा हीरे और मोती धारण करते हैं वे उन्हें उसे भेंट करते हैं तो भी वह प्रसन्न नहीं होता, क्योंकि वह आरम्भ से ही दुःशील है। सबसे बड़ा कहलाकर भी वह अपने अधीन राजाओं पर अत्याचार करता है और सबसे कर लेता है। किसी की सामर्थ्य नहीं, जो उसका सामना कर सके। उसके बन्दीगृह में पड़े हुए अनेक राजा अपने जीवन के दिन काट रहे हैं। तथापि हे महाराज! यह याद रखना चाहिए कि रणक्षेत्र में वीर गति पाने वाला क्षत्रिय सीधा स्वर्ग को जाता है। इसलिए हम सब मिलकर जरासंध से युद्ध करें। 86 राजघरानों को वह मिट्टी में मिला चुका है। 100 घरानों में अब केवल 14 बचते हैं। जब ये 14 भी उसके अधीन हो जायेंगे तो वह नरमेध यज्ञ आरम्भ करेगा। जो पुरुष उसको इस काम से रोकेगा उसका पराभव होगा। इसलिए जो जरासंध का दमन कर सकेगा वही राजाओं का महाराजा और राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होगा।" महाराज कृष्ण के कथन को सुनकर युधिष्ठिर कहने लगे, "हे कृष्ण, यह कैसे हो सकता है कि मैं चक्रवर्ती राजा की पदवी के लालच में आकर तुमको जरासंध से लड़ने के लिए भेजूँ? अर्जुन और भीम मेरे दोनों नेत्र के समान हैं और आप, हे कृष्ण! मेरे हृदय रूप हो। यदि मुझसे मेरे नेत्र और मेरा हृदय पृथक कर दिया जावे, तो मैं किस प्रकार जीवित रह सकता हूँ? जरासंध की सेना को तो यमराज भी लड़ाई में हरा नहीं सकते। तुम या तुम्हारी सेना क्या चीज है। मुझे तो इस काम में भलाई नहीं दिखाई देती। ऐसा न हो कि परिणाम और का और ही हो जाये। इसलिए मेरी सम्मति है कि इस काम में हाथ न डाला जावे। हे कृष्ण! मेरी समझ में इससे अलग रहना ही बुद्धिमानी है, क्योंकि इसका पूरा होना अत्यन्त कठिन है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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