योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 80

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ


इस कथन को सुनते ही युधिष्ठिर की सारी इच्छाओं पर पानी पड़ गया। वे फिर कहने लगा, "हे कृष्ण! यदि आप जैसे समर्थ पुरुष भी जरासंध से डरकर भाग गये तो मेरी क्या सामर्थ्य है जो मैं उसका सामना कर सकूँ? वह केवल बलवान ही नहीं है, वरन् अन्यायी और अत्याचारी भी है। इसके अतिरिक्त इससे अशान्ति फैलने की भी संभावना है जिसे मैं पसन्द नहीं करता।" राजा के इन कायरतापूर्ण वचनों को सुनकर भीम को जोश आ गया और वह कहने लगा, "महाराज! इसमें सन्देह नहीं कि जो पुरुषार्थहीन और निर्बल है तथा जिसके पास युद्धसामग्री नहीं, यदि वह अपने से सबल शत्रु से लड़ाई ठानेगा तो मुँह की खाएगा ही। पर जो राजा सावधान और नीति से युक्त है, चाहे वह निर्बल भी है, तथापि अपने शत्रु पर विजयी हो जाता है। आपके राज्य में कृष्ण के समान दूसरा नीति को जानने वाला नहीं है। बल में कोई मेरी बराबरी नहीं कर सकता और अर्जुन तो दुर्जय है ही। जैसे तीन प्रकार की अग्नि के मिलने से यज्ञ होता है वैसे ही इन तीनों के मिल जाने से निश्चय ही जरासंध का नाश होगा।"

भीम के इस कथन को सुनकर कृष्ण बोले, "अल्पबुद्धि या विचारहीन मनुष्य बिना परिणाम को विचारे अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने में लग जाते हैं, पर फिर भी कोई शत्रु इसे स्वेच्छाचार या अल्पबुद्धि के कारण उस पर दया नहीं करता। इसलिए कोई काम बिना विचारे नहीं करना चाहिए। इससे पहले कृतयुग में पाँच महाराजाओं ने अपने-अपने गुणों से चक्रवर्ती राजा की उपाधि पाई। किसी ने कर छोड़ देने से, किसी ने दया और न्याय से प्रजा को वश में करने से, किसी ने अपने तपोबल से और किसी ने अपने बाहुबल से। परन्तु तुम एक गुण से नहीं, वरन् इन सब गुणों से चक्रवर्ती राजा कहलाने के अधिकारी हो। तू बड़भागी और प्रतापी है जो अपनी प्रजा की हर तरह से रक्षा करता है। तू क्षमाशील और बुद्धिमान भी है। पर दूसरा राजा जरासंध भी इस उपाधि का दावेदार बना है। उसके बल की थाह इसी से लग जाती है कि उसने क्षत्रियों के 100 कुलों को पराजित किया है और कोई उसका सामना नहीं कर सका। वह अत्यन्त अभिमानी है। जो राजा हीरे और मोती धारण करते हैं वे उन्हें उसे भेंट करते हैं तो भी वह प्रसन्न नहीं होता, क्योंकि वह आरम्भ से ही दुःशील है। सबसे बड़ा कहलाकर भी वह अपने अधीन राजाओं पर अत्याचार करता है और सबसे कर लेता है। किसी की सामर्थ्य नहीं, जो उसका सामना कर सके। उसके बन्दीगृह में पड़े हुए अनेक राजा अपने जीवन के दिन काट रहे हैं। तथापि हे महाराज! यह याद रखना चाहिए कि रणक्षेत्र में वीर गति पाने वाला क्षत्रिय सीधा स्वर्ग को जाता है। इसलिए हम सब मिलकर जरासंध से युद्ध करें। 86 राजघरानों को वह मिट्टी में मिला चुका है। 100 घरानों में अब केवल 14 बचते हैं। जब ये 14 भी उसके अधीन हो जायेंगे तो वह नरमेध यज्ञ आरम्भ करेगा। जो पुरुष उसको इस काम से रोकेगा उसका पराभव होगा। इसलिए जो जरासंध का दमन कर सकेगा वही राजाओं का महाराजा और राजसूय यज्ञ करने का अधिकारी होगा।"

महाराज कृष्ण के कथन को सुनकर युधिष्ठिर कहने लगे, "हे कृष्ण, यह कैसे हो सकता है कि मैं चक्रवर्ती राजा की पदवी के लालच में आकर तुमको जरासंध से लड़ने के लिए भेजूँ? अर्जुन और भीम मेरे दोनों नेत्र के समान हैं और आप, हे कृष्ण! मेरे हृदय रूप हो। यदि मुझसे मेरे नेत्र और मेरा हृदय पृथक कर दिया जावे, तो मैं किस प्रकार जीवित रह सकता हूँ? जरासंध की सेना को तो यमराज भी लड़ाई में हरा नहीं सकते। तुम या तुम्हारी सेना क्या चीज है। मुझे तो इस काम में भलाई नहीं दिखाई देती। ऐसा न हो कि परिणाम और का और ही हो जाये। इसलिए मेरी सम्मति है कि इस काम में हाथ न डाला जावे। हे कृष्ण! मेरी समझ में इससे अलग रहना ही बुद्धिमानी है, क्योंकि इसका पूरा होना अत्यन्त कठिन है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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