योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 78

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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चौदहवाँ अध्याय
खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण


कृष्ण के वंश से यों संबंध हो जाने से पाण्डवों को बड़ा सहारा मिला और सारे आर्यावर्त में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। शत्रु भी उनसे भय खाने लगे। दुर्योधन को भी लगा कि कृष्ण और उनके यादव वीर पाण्डवों की पीठ पर हैं। इसके अतिरिक्त इस संबंध से उनका एक अभिप्राय यह भी था कि वे अपने शत्रु जरासंध से बदला लेने में अर्जुन आदि से सहायता लेना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि पाण्डव उनका उपकार मानकर जरासंध के नाश में स्वयमेव उनकी सहायता करें। कृष्ण की युक्ति फलदायक हुई और ऐसा ही हुआ। इनमें परस्पर ऐसा प्रेम बढ़ा कि कृष्ण प्रायः सब लड़ाइयों में पाण्डवों का साथ देने लगे। ऐसा जान पड़ता है कि जब सुभद्रा का दहेज लेकर कृष्ण इन्द्रप्रस्थ गये तो अर्जुन ने उन्हें वहाँ रोक लिया। फिर दोनों ने यह पक्का किया कि वे खांडवप्रस्थ की जंगली जातियों को जीतकर युधिष्ठिर का राज्य बढ़ा दें और जंगल को काटकर अथवा जलाकर सारे स्थान को उपजाऊ बना दें।

आदि पर्व के 224वें अध्याय से लेकर पर्व की समाप्ति तक आलंकारिक शैली में इन्हीं युद्धों का दर्शन है। इन अध्यायों के पढ़ने से मालूम होता है कि इस वन में पिशाच, राक्षस, दैत्य, नाग, असुर, गन्धर्व, यक्ष और दानव आदि अनेक असभ्य जातियाँ बसी हुई थीं जिनके साथ अर्जुन और कृष्ण को बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। इनमें विजयी होने से सारे आर्यावर्त में पाण्डवों का सिक्का बैठ गया, क्योंकि उस समय तक किसी राजा-महाराजा को यह हौसला नहीं हुआ था कि इनसे लड़ाई लड़कर इनको वशीभूत करें। एक ओर तो इन जातियों ने पाण्डवों के सैनिक बल का डंका बजा दिया, दूसरी ओर महाराज युधिष्ठिर के न्याय और नीति की धूम मच गई। वेदविद्या के ज्ञाता युधिष्ठिर ने इस योग्यता से प्रबन्ध मर्यादा को स्थापित कर दिया जिससे सारे देश में उनका यश फैल गया। सारे देश की प्रजा यही चाहने लगी कि वह भी युधिष्ठिर की प्रजा बनकर उसके धार्मिक व्यवहार से लाभ उठावें।

इसका परिणाम यह हुआ कि एक-एक करके अनेक प्रान्त उसके राज्य में मिलते चले गये। बहुतों को उसके भाइयों ने जीतकर मिला लिया और बहुत-से सन्धि और मेल से वश में आ गए। सारांश यह कि थोड़े ही काल में महाराज युधिष्ठिर का राज्य दूर-दूर तक फैल गया और सारे देश में कोई राजा-महाराजा न रहा, जो सैनिकबल, सर्वप्रियता और सुप्रबन्ध में युधिष्ठिर के राज्य में थी। खांडवप्रस्थ के किसी युद्ध में अर्जुन ने मय नामक एक पुरुष को जीवनदान दिया था। इस युद्ध की समाप्ति पर जब अर्जुन और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ लौट आए तो मय उनके पास आकर बोला कि इस जीवनदान के प्रतिकार में मुझे आपकी कुछ सेवा करनी चाहिए। अर्जुन बोला, "मैंने तुम्हारी जान बचाई है इसलिए मैं तुमसे उसके बदले में कुछ नहीं ले सकता। तुम स्वतंत्र हो, जहाँ चाहो जाओ और प्रसन्न रहो।" मय इसके उत्तर में बहुत आग्रह करने लगा और बोला, "हे पाण्डुपुत्र, यद्यपि आपको यही उचित था जो आपने कहा, पर आपकी कुछ सेवा करने की मुझे उत्कुट कामना है। मैं चाहता हूँ कि आपकी कोई सेवा करके अपनी प्रवीणता दिखाऊँ, क्योंकि मैं अपने को इस समय का 'विश्वकर्मा'[1] मानता हूँ।"

अर्जुन ने उत्तर दिया, "हे मय! मेरा सिद्धान्त है कि मैंने तेरी जान बचाई इसलिए तुझसे बदले में कुछ न लूँ, पर यदि मेरी इच्छा कुछ दूसरी है तो तू कृष्ण की कुछ सेवा कर दे। इसी से मैं संतुष्ट हो जाऊँगा।"

यह सुनकर मय कृष्ण से आग्रह करने लगा। अन्त में कृष्ण ने कहा, 'हे मय! यदि तू मेरे लिए कुछ करना चाहता है तो राजा युधिष्ठिर के लिए एक ऐसी राजसभा[2] बना, जो संसार में अपने आपमें आदर्श हो और जैसी दूसरी कोई और न बना सके।"[3]

मय ने विनयपूर्वक इस आज्ञा को पूरी करने का निश्चय किया और कुछ काल में एक ऐसे विशाल और सुन्दर राजभवन का निर्माण किया जिसे देखकर सारे राजा-महाराजा आश्चर्य में पड़ गए और मय के बुद्धिकौशल पर वाह-वाह करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सृष्टि के रचने के कारण परमेश्वर विश्वकर्मा कहा जाता है, पर इस शब्द का अर्थ आजकल इंजीनियर से है।
  2. महल
  3. इस प्रासाद का वर्णन करते हुए महाभारत में लिखा है कि इसका क्षेत्रफल 5 हजार हाथ का था। इसमें सुनहरी झरने थे और सारा महल मोतियों की चमक से ऐसा जगमगाया करता था जिसके सामने सूर्य का तेज मन्द दीख पड़ता था। इसके पश्चात एक जलाशय का वर्णन करते हैं जिसका जल ऐसा स्वच्छ था कि नीचे की भूमि दिखाई देती थी। इधर-उधर संगमरमर की सीढ़ियाँ थीं जिनमें हीरे और दूसरे बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए थे। चारों ओर बड़े-बड़े वृक्ष थे। इनसे सटा हुआ एक बनावटी जंगल बनाया गया था। इस महल की प्रतिष्ठा के यज्ञ के दिन 500 ऋषि और मुनि उपस्थित थे और देश-देश के राजा-महाराजा आये थे। राजाओं की इस नामावली में हम मन्द्राज (आज का तमिलनाडु), कलिंग, बंगाल, कन्नौज, अन्धक और मगध आदि देशों के राजाओं के नाम पाते हैं।

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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