योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
छठा अध्याय
रासलीला का रहस्य
ऐसे सुहावने समय में प्रकृति मनुष्य के चित्त को चंचल कर देती हैं। दुराचारी मनुष्य अपनी अपवित्रता में उन्मत्त प्रकृति देवी के इस पवित्र सौन्दर्य पर हस्तक्षेप करने लगते हैं, पर लज्जावश मनुष्य दृष्टि से छिपकर केवल कुछ मित्रों में ही ऐसा करने पाते हैं। परन्तु जनसाधारण का हृदय अपनी सरलता में यों ही उछल पड़ता है। ऐसे सुहावने समय में प्रत्येक मनुष्य की कवित्त्व शक्ति उत्साहित हो गाने-बजाने की ओर जाती है। गोपों की छोटी-सी मंडली अपनी प्राकृतिक फुलवाड़ी में आनन्द मंगल से गाने-बजाने में मग्न हैं। बालक कृष्ण को वंशी बजाने की बड़ी चाह हैं उसने इस बाजे में प्रवीणता भी प्राप्त की हैं। जब वह वंशी बजाता है तो उसके चारों ओर भीड़ लग जाती है। गोपों के लड़के और लड़कियाँ वृत बनाकर उनके चारो ओर खड़े हैं और नाचना तथा गाना आरम्भ करते हैं। इस मंडली में जिसे देखिये वही इस रंग में रँगा हुआ दीख रहा है। ऐसे समय में कृष्ण भी वंशी बजाते-बजाते नाचते रहे हैं। बस, यही रासलीला है और यही रासलीला की विधि है। पाठक वृन्द! यथार्थ तो बस इतना ही था जिस पर हमारे पौराणिक कवियों ने ऐसी-ऐसी युक्तियाँ लगाई, इतना ताना-बाना बुना की बस पृथ्वी और आकाश को एक कर दिया। इन तांत्रिक कवियों ने कृष्ण का ऐसा चित्र खींचा कि यदि उसका सहस्रांश भी सत्य हो तो हम यह कहने में तनिक भी नही सकुचाएँगे कि कृष्ण अपने जीवन के इस काल में बड़े विषयी और कामातुर थे। आजकल के पौराणिक विद्वानों पर भी इस बात की पोल खुल गई है और वे इन प्रेम प्रहसनों से परमेश्वरीय प्रेम का सार निकालने की चेष्टा करते हैं। पर हमारी समझ में यह चेष्टा वृथा है क्योंकि हम देखते हैं कि विष्णु पुराण में न तो राधा का वर्णन है, न गोपियों के संग कृष्ण की मुँहजोरियों का ही कुछ इशारा है और न चीरहरण की ही कहानी है। हरिवंश और महाभारत में भी इन बातों का कहीं वर्णन नहीं। यह सारी कथाएँ ब्रह्मवैवर्त और भागवत पुराण के कर्ताओं की गढन्त हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज